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________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 53 है। उन्हें प्रत्येक स्थल पर अनेकान्त ही प्रिय है। उसी का पोषण उनका अभीष्ट है । व्यवहार हो या निश्चय दोनों का सन्तुलन उनके प्रत्येक प्रस्तुतीकरण में समरसी भाव से उदित हुआ है उनको न निश्चय का आग्रह है न व्यवहार का । वर्तमान में नय विषयक जो भ्रान्तियाँ है उनके सम्यक् निवारण के लिए यह ग्रन्थ हृदय-हारवत् ही है और तत्त्व जिज्ञासुओं के लिए अवश्य ही अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों के उद्घाटन हेतु धारणीय है । कतिपय विषयों को संक्षेप में पाठकों के समक्ष रखना उचित होगा । विशेष यह है कि कार्यकारण (उपादाननिमित्त) एवं ज्ञान की ज्ञाप्ति-क्रिया (निश्चय-व्यवहार से) विषयक आ. श्री का मन्तव्य हम पूर्व में नय योजना शीर्षक में व्यक्त कर चुके हैं। 26. पर्याय-व्युत्क्रम, नियतिवाद, अकालमरण जैन समाज में कानजी मत के दुष्प्रभाव के कारण ‘क्रमबद्धपर्याय' का मिथ्यान्धकार छाने लगा था यह बात पू. आ. श्री ज्ञानसागरजी के दृष्टि में आई । आगम में क्रमबद्धपर्याय शब्द ही नहीं है । हाँ क्रमवर्ती, क्रमभावी, क्रमनियमित, क्रमनियत है । किन्तु क्रमबद्ध का प्रयोग क्यों हुआ उसके मूल में आचार्य को पुरुषार्थहीनता, संयम की उपेक्षा, नियतिवाद, निश्चय नय का एकान्त हठ आग्रह आदि ही लक्ष्यगत हुए । अतः उन्होंने अनपे वाङ्मय में स्पष्ट दिशा-निर्देश दिया । हम सर्वप्रथम उन्हीं के शब्दों को प्रस्तुत करेंगे । प्रस्तुत विषयपरक निरूपण जो अन्य ग्रन्थों में है उसे भी यहाँ रखना उपयोगी होगा । निश्चयनय को ही सर्वथा सत्य माननेवाले की मिथ्या धारणा यह है कि किसी भी द्रव्य में विकार नहीं होता उसके निरसन के प्रसंग में, "धर्मोप्यधर्मोऽपि नमश्च कालः स्वाभाविकार्यक्रिययोक्तचालः । जीवस्तथा पुद्गल इत्युम, परिव्रजेद्विक्रिययापि चार ॥12॥ अर्थ - अर्थात् धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश और कालद्रव्य ये चारों द्रव्य किसी के साथ अपना किसी प्रकार का नाता नहीं जोड़ते । अतः ये सब ठीक एक अपनी उसी सहज चाल से परिणन करते रहते हैं परन्तु जीव और पुद्गल इन दोनों की ऐसी बात नहीं है । ये जब एक-दूसरे के साथ सम्मिलन को प्राप्त होते हैं तो एक और एक ग्यारहवाली कहावत को चरितार्थ करते हुए उदारता दिखाते हैं यानी अपनी सहज स्वाभाविक हालत से दूर रहते हुए विकार से युक्त होते हैं । "एक सो नेक किन्तु मेल में खेल होता है ।" दो चीजों के मेल में विकार आये बिना नहीं रहता । अपने सहज क्रमबद्ध परिणमन के (पर्याय के) स्थान पर व्युत्क्रम को ही अपनाना पड़ता है । जैसे - अकेला पथिक अपनी ठीक चाल से चलता है, किन्तु वही जब दूसरे के साथ होता है तो दोनों को अपनी चाल मिलानी पड़ती है तो साथ निभता है एवं विचित्रता आ जाती है । देखों पुद्गलाणु से पुद्गलाणु का मेल होने पर अपनी परम सूक्ष्मता को उलांघ कर स्कन्ध जब जीव के साथ होता है तो पुद्गल को शरीर एवं जीव को उसका शरीरी होकर रहना पड़ता है।"
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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