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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण -- शुकपाठ (तोतारटन्त) से या केवल श्रद्धान से क्या लाभ ? मिश्री मीठी है इस प्रकार कथन मात्र से क्या मुख मीठा हो जाता है, कदापि नहीं ।
नय (वचन) तो वस्तुतः प्रयोग करने के लिए है अनुभव और चारित्र के लिए है स्वसमय की प्राप्ति होने पर वे विलीन हो जाते हैं । सभी शब्दमार्ग नय हैं । नयों को वाचित करते रहें तो पराधीनता से मुक्त नहीं हो सकते । द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र में माइल्ल धवल ने कहा भी है -
जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा । जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ॥
- जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही पर - समय हैं । अतः नयों का प्रयोजन स्वसमयता प्राप्त करके पलायन कर जाना है ।
पू. ज्ञानसागरजी महाराज ने प्रवचनसार की व्याख्या में नय निरूपण द्वारा अन्य विषयों को भी पल्लवित किया है उन विषयों को हम उनके अन्य ग्रन्थों के माध्यम से प्रस्तुत करेंगे।
25. सम्यक्तवसार शतक मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की बड़ी महिमा है । मोक्षमार्ग का प्रारम्भ सम्यक्त्व से होता है । सम्यक्त्व का अर्थ समीचीनता है । अर्थात् सामान्य रूप से दर्शन, ज्ञान और चारीत्र तीनों का सम्यक्त्व मोक्षमार्ग में विधेय है किन्तु यह रूढ़ अर्थ में केवल सम्यग्दर्शन का पर्याय बनकर प्रकट हुआ है जैसा कि आ. अमृतचन्दजी के निम्न वाक्य में स्पष्ट है, "तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन ।" पु. सिद्धि ।
पीछे हम सम्यग्दर्शन के व्यवहार और निश्चय दृष्टि से लक्षण बतला आये हैं । पू. ज्ञानसागरजी महाराज ने इसी सम्यक्त्व रूप महारत्न के विविध पाश्र्यों को प्रदर्शित कर बड़ी रोचक शैली में 100 श्लोकों की रचना की है पश्चात् इसमें चार श्लोक पुष्पिका रूप मे हैं । इस ग्रन्थ में मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व की व्याख्या, मोक्षमार्ग उपादान-निमित्त, क्रमवर्ती पर्याय, द्रव्यों के परिणमन की स्वतन्त्रता, परतन्त्रता, स्वाभाविक वैभाविक शक्ति, षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायस्वरूप वर्णन, त्रिवधि आत्मा, त्रिविध चेतना सम्यक्त्व के अंग भेदविज्ञान आदि का वर्णन किया है । सम्पूर्ण वर्णन में नयों का मधुरिम परिपाक हुआ है । नयस्वरूप वर्णन में हमने सम्यक्त्वसार शतक के कतिपय उदाहरण प्रस्तुत भी किये हैं ।
आ. श्री ने स्वरचित इस गम्भीर ग्रन्थराज के हार्द खोलने के लिए स्वयं ही इसकी विस्तृत हिन्दी भाषा टीका की रचना क्षुल्लक अवस्था में (ज्ञानभूषण महाराज) की थी। प्रस्तुत ग्रन्थ के विषय के अनुरूप ही हमारा यह प्रयत्न होगा कि इस अमृतोपम उपदेश के नय-निरूपणांश को पाठकों के समक्ष प्रकट कर सकें । यह स्पष्ट ही है कि उनके मूल और व्याख्या को देखने से प्रतीत होता है कि उन्होंने स्वयं ही शंका-समाधान और प्रश्नोत्तर शैली के आगमसम्मत रूप से नय विषयक एकान्त मान्यताओं का युक्तिपूर्ण निरसन किया