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आचार्य ज्ञानसागर
के वाड्मय में नय-निरूपण
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सम्पठेत् प्रथमतो
ह्यपासकाधीतिगीतिमुचितात्मरीतिकाम् । अज्ञता हि जगतो विशोधने स्यादनात्मसदनावबोधने ||45|| द्वितीय सर्ग भूतले तिलकतामुताञ्चतां श्रीमतां चरितमर्चतः सताम् । दुःखमुच्चलति जायते सुखं दर्पणे सदसदीयते मुखम् ॥6॥ सुस्थितिं समयरीतिमात्मनः सङ्गतिं परिणतिं तथा जनः । द्रष्टुमाशु करणश्रुतं श्रयेत् स्वर्णकं हि निकषेपरीक्ष्यते ॥47॥ सञ्चरेत् सुचरणानुयोगतस्तावदात्महितभावनारतः । नित्यशोप्रतिनिवृत्त्यं सत्पथात्संभवेत्पथि गतस्य का व्यथा ॥ 8 ॥ किं किमस्ति जगति प्रसिद्धियत्कस्य संपदथ कीदृशी विपद् । द्रव्यनामसमये प्रपद्यतां नो वितर्कविषया हि वस्तुता ॥9॥
अर्थ गृहस्थ को चाहिए कि वह सबसे पहले जिसमें अपने आपको करने योग्य कुलारीति-रिवाजों का वर्णन हो, ऐसे उपासकध्ययन शास्त्रों का ही अध्ययन करें ! क्योंकि अपने घर की जानकारी न रखते हुए दुनिया को खोजना अज्ञानता ही होगी अथवा इस भूतल पर श्रेष्ठ प्रसिद्धि को प्राप्त श्रीमान् सत्पुरुषों के जीवन चरित का स्तवन करने पर गृहस्थ का दुःख दूर होता और सुख प्राप्त होता है क्योंकि अपना स्वच्छ या मलिन मुख दर्पण में देखा जा सकता है ||46 || मनुष्य समीचीन अवस्था, काल के नियम अपनी सङ्गति, शुभगति या शुभाशुभ परिवर्तन का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करने के लिए करणानुयोग शास्त्रों का अध्ययन करे । क्योंकि स्वर्ग के खरे-खोटेपन की परिक्षा कसौटी पर ही की जाती है ||47| इसके बाद अपना भला चाहने वाले मनुष्य को चाहिए कि वह चरणानुयोग का अध्ययन कर सन्मार्ग को न छोड़ता हुआ सदैव सदाचरण करें । क्योंकि सन्मार्ग पर चलनेवाले को क्या कष्ट होगा ||48॥ इसके बाद जगत में क्या-क्या चीजें हैं और किस-किस चीज का कैसा सुन्दरअसुन्दर परिणाम होता है, यह जानने के लिए द्रव्यानुयोग शास्त्र का अध्यन करें ।"
इसके अनन्तर चारों अनुयोगों की सार्थकता सिद्ध करने हेतु आचार्यश्री ने बताया है कि चारों अनुयोगों में ही आत्महित ही निरूपित है । अतः कोई अनुयोग न तो हेय है, न किसी का कम या अधिक मूल्य है । क्रम का निर्धारण इसीलिए है कि अपनी योग्यता को देखकर अर्थात् पात्रता वृद्धिंगत करते हुए स्वाध्याय योग्य ग्रन्थ का चयन करना चाहिए । व्युत्क्रम से अकल्याण ही होता है । लोक में भी कक्षा की दृष्टि से पाठ्यक्रम का निर्धारण होता है । कक्षा प्रथम में दसवीं की पुस्तक नहीं पढ़ाई जाती । प्रथमं करणं, चरणं, द्रव्यं नमः यह क्रम आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने सम्यग्ज्ञान के निरूपण में रत्नकरण्ड श्रावकाचार में वर्णित कर चारों अनुयोगों की पुष्टि की है। चाहे किसी अनुयोग में व्यवहार प्रमुख हो या निश्चय । प्रमथम तीन अनुयोगों का परिशीलन कर एवं जीवन में उतार कर मनुष्य द्रव्यानुयोग के अध्यात्म का पात्र होता है । वर्तमान में अध्यात्मपरक समयसारादि को ही अध्ययन कर अन्य अनुयोगों की अवहेलना करनेवाले मुमुक्षुओं को यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि
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