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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण कुन्दकुन्द स्वामी ने ग्रन्थ रचना मुख्य रूप से श्रमणों को लक्ष्य में रखकर की है । इसका अर्थ यह नहीं है कि गृहस्थों को उनके ग्रन्थों को पढ़ना वर्जित किया जा रहा है । आय मात्र इतना ही है कि पढ़ते समय यह ध्यान रहे कि यह कथन साधु के लिए किया जा रहा है और साधु अवस्था प्राप्त कर हमें इसे स्वीकार करना होगा, सेवनीय होगा तो भ्रम नहीं रहेगा तथा व्यवहार अथवा निश्चय में किसी का पक्ष नहीं होगा । उनके ग्रन्थों में प्राय: मुनि, श्रमण आदि शब्दों से संबोधन किया गया है तथा अन्य भी अधिकांश स्थलों पर मुनिपरक व्याख्यान पाया जाता है । एक दो उदाहरण प्रस्तुत हैं
ण वि होदि अप्पमत्तो एवं भणन्ति सुद्धं णाओ जो
ण पमतो जाणगो द्र जो भावो । सो उ सो चेव ||समयप्राभृत 6 ||
यहाँ यह कहा है कि शुद्धज्ञायक भाव न प्रमत्त है न अप्रमत्त । प्रमत्त और अप्रमत्त दो भेद मुनि के ही होते हैं गृहस्थ के नहीं । प्रमत्त और अप्रमत्त इन दोनों गुणस्थानों से ऊपर शुद्ध ज्ञायकभाव है । गृहस्थ की यहाँ चर्चा नहीं । गृहस्थ पर यह कथन लागू नहीं होता ।
प्रवचनसार के ज्ञानाधिकार की अन्तिम दो गाथाओं में तो कुन्दकुन्द ने श्रमणों को स्पष्ट निर्देश देते हुए कहा है, "जो मुनि अवस्था में उक्त पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता वह श्रमण नहीं है और जो मोह की दृष्टि का घात कर चुका है, आगम में कुशल है, विराग अर्थात् चारित्र के प्रति उद्यत है वह महात्मा श्रमण है और धर्मस्वरूप है । इस उद्धरण से हमारे उक्त कथन की पूर्णतया पुष्टि हो जाती है । केवल अष्टपाहुड में, चारित्रपाहुड़ में दो-चार गाथाओं में ही मात्र गृहस्थ धर्म का वर्णन है ।
अतः उनकी रचनायें प्रथमकाल्पिकों के लिए नहीं हैं। जिन्हें देव-गुरु-शास्त्र के स्वरूप का भान नहीं, सात तत्त्वों से जो अपरिचित हैं गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीवस्थानों का जिन्होंने कभी नाम भी नहीं सुना, कर्मबन्ध की प्रक्रिया से जो अनजान है नयों का जिन्हें बोध नहीं है ऐसे लोग भी यदि समयसारादि अध्यात्म के निश्चय और व्यवहार कथन में उतरते हैं तो उससे स्वयं उनका ही अकल्याण है । यह तो संसार- शरीर भोगों से अन्तः करण से विरक्त और पञ्चपरमेष्ठी को अनन्य शरण रूप से भजनेवाले (व्यवहार में पारंगत) उन तात्त्विक पथ के पथिकों (केवल मुमुक्षु नहीं अपितु मोक्षमार्गियों) के लिए है जिनको न व्यवहार का पक्ष है न निश्चय का क्योंकि समयसार नयपक्षातीत है ऐसा स्वयं कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है ।
आचार्य ज्ञानसागरजी ने अनुयोगों की सभी विधाओं को अपनी दिव्य लेखनी से स्पर्श किया है उन्हें किसी विशिष्ट अनुयोग का अथवा नय का पक्ष नहीं है । ठीक भी है साधु का अन्त:करण स्वपरहितसाधन की उदात्त भावना से भरा हुआ है वे वीतराग मार्ग के अनुयायी हैं । समता- क्षमता उनके अंग-अंग में व्याप्त है चाहे मन हो या वाह्य तन । मुख्यता किसी
अनुयोग की हो तिरस्कार उन्होंने किसी भी आगम वाक्य का नहीं किया। अनुयोग परस्पर पूरक हैं । एक अनुयोग की सिद्धि में अन्य की सिद्धि गर्भित है । यहाँ आचार्य अमृतचन्द्रजी दो श्लोक प्रस्तुत करना अप्रासंगित न होगा । दृष्टव्य है
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