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________________ 30 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण स्यादवाद कौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां - यो भावयत्यहरहः स्वयमिहोपयुक्तः । ज्ञानक्रियानय परस्परतीव्रमैत्री पात्रीकृतः श्रयतिभूमिमियां स एकः ||267 सम. कलश ॥ स्याद्वाद की कुशलता (नय - निष्पक्षता) और निश्चल संयम (अतिचार रहित दृढ़ ) के द्वारा जो निरन्तर अपनी आत्मा में रत होकर उसको भाता है, ध्यान करता है एवं ज्ञाननय (निश्चय-नय) व क्रिया-नय की मित्रता ने जिसे पात्र बना दिया है ऐसा कोई एक (विरला) व्यक्ति ही इस कारण समयसार की भूमिका - पदवी को प्राप्त करता है । ऊपर के कलश से यह स्पष्ट है कि यह अवस्था संयमी साधु के ही सम्भव है क्योंकि भोग और योग का विरोध है । पं. बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में इसी भाव को व्यक्त करते हुए लिखा है - " दो पथ पन्थी चलै न पन्था । दो मुख सूई सिये न कन्था । दोउ काम नहिं होंय सयाने । विषय भोग और मोक्षहु जाने ॥ पू. आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने विवेकोदय में निश्चय - व्यवहार के अनेकों अन्य विषयों को भी लिया है । ये विषय उनकी अन्य रचनाओं में भी है। हम वहाँ उन्हें प्रस्तुत करेंगे । 15. जयोदय महाकाव्य पू. आ. श्री की यह कालजयी कृति है । अपने वृहद् कलेवर को लिए हुए संस्कृत भाषा में विविध छन्दों के श्लोकों में निबद्ध यह रचना ज्ञानपिपासुओं का कण्ठहार बनी हुई है । सन् 1995 में मदनगंज - किशनगढ़ (राज.) में प. पू. मुनिराज श्री सुधासागरजी महाराज के चरण सान्निध्य में चातुर्मास्य काल में उनकी सत्प्रेरणा से 'जयोदय महाकाव्य' पर वृहद् विद्वत् गोष्ठी का आयोजन हुआ था । लगभग सौ विद्वानों ने अपने आलेखों का वाचन किया था । जयोदय के अंतर्गत समाविष्ट विविध विषयों का ऊहापोह पू. मुनिराजजी के तद्विषयक उपदेशों एवं समाधानों के साथ वहाँ हुआ था । जयकुमार - सुलोचना चरित्र के माध्यम से पू. ज्ञानसागरजी महाराज ने पाठकों को धर्म में लगाने का महत्कार्य सम्पादित किया है । चारों अनुयोगों की सार्थकता - जैनदेशना को चार अनुयोगों में परम्पराचार्यों ने विभक्त किया है । प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग । प्रथम तीन अनुयोगों में व्यवहार नय की मुख्यता है एवं द्रव्यानुयोग में निश्चय की । सापेक्षता सर्वत्र है । जयोदय प्रथमानुयोग की श्रेणी में आता है । इसमें भी आवश्यकतानुसार आचार्यश्री ने नय विषयक चर्चायें की हैं । प्रथम तो उन्होंने चारों अनुयोगों का पठन क्रम जो परम्परा में प्राप्त है सयुक्ति प्रस्तुत कर गृहस्थों का यथोचित मार्गदर्शन किया है । यहाँ हम विषय विस्तार के भय को छोड़कर एतत्सम्बन्धी उनके द्वारा प्रणीत 5 श्लोक क्रमशः प्रस्तुत कर रहे हैं । (टीका उन्हीं के द्वारा लिखित है)
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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