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________________ जन्म-मृत्यु का चक्र-व्यूह संसार का हेतु जीव की वैभाविक दशा (जो स्वाभाविक नहीं है) का नाम संसार है। संसार का मूल कर्म है। कर्म के मूल राग-द्वेष हैं। जीव की असंयम-मय प्रवृत्ति रागमूलक या द्वेषमूलक होती है। उसे समझा जा सके या नहीं, यह दूसरी बात है। जीव को फंसाने वाला दूसरा कोई नहीं। जीव भी कर्म-जाल को अपनी ही अज्ञान-दशा और आशा-वांछा (इच्छा या तृष्णा) से रच लेता है। कर्म व्यक्तिगत रूप से अनादि नहीं है, प्रवाह रूप से अनादि है। कर्म-प्रवाह का भी आदि नहीं है। जब से जीव है, तब से कर्म है। दोनों अनादि हैं। अनादि का आरम्भ न होता है, और न बताया जा सकता है। एक-एक कर्म की अपेक्षा से सब कर्मों की निश्चित अवधि होती है। परिपाक-काल के बाद वे जीव से विलग हो जाते हैं। अतएव आत्मा की कर्म-मुक्ति में कोई बाधा नहीं आती। आत्म-संयम से नये कर्म चिपक बन्द हो जाते हैं। पहले चिपके हुए कर्म तपस्या के द्वारा धीमे-धीमे निजार्ण हो जाते हैं; नये कर्मों का बन्द नहीं होता, पुराने कर्म टूट जाते हैं। तब वह अनादि प्रवाह रुक जाता है-आत्मा मुक्त हो जाती है। यह प्रक्रिया आत्म-साधकों की है। आत्म-साधना से विमुख रहने वाले नये-नये कर्मों का संचय करते हैं। उसी के द्वारा उन्हें जन्म-मृत्यु के अविरल प्रवाह में बहना पड़ता है। । जन्म लोक शाश्वत है; संसार अनादि है; जीव नित्य है; कर्म की बहलता है; जन्म-मृत्यु की बहुलता है; इसलिए एक परमाणु-मात्र भी लोक में ऐसा स्थान नहीं, जहाँ जीव न जन्मा हो और न मरा हो। _ “ऐसी जाति, योनि, स्थान या कुल नहीं, जहाँ जीव अनेक बार या अनन्त बार जन्म धारण न कर चुके हों ।”
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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