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जैन दर्शन और संस्कृति इसलिए माता-पिता से पुत्र की रुचि, स्वभाव, योग्यता भिन्न भी होती है। यही कारण है कि माता-पिता के गुण-दोषों का सन्तान के स्वास्थ्य पर जितना प्रभाव पड़ता है, उतना बुद्धि पर नहीं पड़ता।
२. वातावरण भी पौद्गलिक होता है। पुद्गल-पुद्गल पर असर डालते हैं। शरीर, भाषा और मन की वर्गणाओं के अनुकूल वातावरण वर्गणाएँ होती हैं, उन पर उनका अनुकूलन प्रभाव होता है और प्रतिकूल दशा में प्रतिकूल । आत्मिक शक्ति विशेष जागृत हो, तो इसमें अपवाद भी हो सकता है। मानसिक शक्ति वर्गणाओं में परिवर्तन ला सकती है। कहा भी है
"चित्तायत्तं धातुबद्धं शरीरं, स्वस्थ चित्ते बुद्धय: प्रस्फुरन्ति ।
तस्माच्चित्तं सर्वथा रक्षणीयं, चित्ते नष्टे बुद्धयो यान्ति नाशम्।"
-यह धातुबद्ध शरीर चित्त के अधीन है। स्वस्थ चित्त में बुद्धि की स्पुरणा होती है इसलिए चित्त को स्वस्थ रखना चाहिए। चित्त नष्ट होने पर बुद्धि नष्ट हो जाती है।
इसका तात्पर्य यह है कि पवित्र और बलवान् मन पवित्र वर्गणाओं को ग्रहण करता है, इसलिए बुरी वर्गणाएँ शरीर पर भी बुरा असर नहीं डाल सकतीं।
३. खान-पान और औषधि का असर भी भिन्न-भिन्न प्राणियों पर भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। इसका कारण भी उनके शरीर की भिन्न वर्गणाएँ हैं। वर्गणाओं के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में अनन्त प्रकार का वैचित्र्य और तरतमभाव होता है। एक ही रस का दो व्यक्ति दो प्रकार का अनुभव करते हैं। यह उनका बुद्धि-दोष या अनुभव-शक्ति का दोष नहीं, किन्तु इस भेद का आधार उनकी विभिन्न वर्गणाएँ हैं। अलग-अलग परिस्थितियों में एक ही व्यक्ति को इस भेद का शिकार होना पड़ता है।
खान-पान, औषधि आदि का शरीर के अवयवों पर असर होता है। शरीर के अवयव इन्द्रिय, मन और भाषा के साधन होते हैं, इसलिए जीव का प्रवृत्ति के ये भी परस्पर कारण बनते हैं। ये बाहरी वर्गणाएँ आन्तरिक योग्यता को सुधार या बिगाड़ नहीं सकतीं और न बढ़ा-घटा भी सकती हैं किन्तु जीव की आन्तरिक योग्यता की साधनभूत आन्तरिक वर्गणाओं में सुधार या बिगाड़ ला सकती हैं। यह स्थिति दोनों प्रकार की वर्गणाओं के बलाबल पर निर्भर है।
४. ग्रह-उपग्रह से जो रश्मियाँ निकलती हैं, उनका भी शारीरिक वर्गणाओं के अनुसार अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव होता है। विभिन्न रंगों के शीशों द्वारा सूर्य-रश्मियों को एकत्रित कर शरीर पर डाला जाए, तो स्वास्थ्य या मन पर उनकी