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जैन दर्शन और संस्कृति हैं। पाँच जातियाँ योग्यता की दृष्टि से क्रमश: विकसित हैं किन्तु पूर्व-योग्यता से उत्तर-योग्यता सृष्ट या विकसित हुई, ऐसा नहीं। पंचेन्द्रिय प्राणी की देह से पंचेन्द्रिय प्राणी उत्पन्न होता है। वह पंचेन्द्रिय ज्ञान का विकास पिता से न्यून या अधिक पा सकता है। पर यह नहीं हो सकता कि वह किसी चतुरन्द्रिय से उत्पन्न हो जाए या किसी चतुरन्द्रिय को उत्पन्न कर दे। सजातीय से उत्पन्न होना और सजातीय को उत्पन्न करना यह प्राणियों की निश्चित मर्यादा है।
___ एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय के जीव सम्मूर्छिम और तिर्यन्च जाति के ही होते हैं। पंचेन्द्रिय जीव सम्मूर्छिम और गर्भज दोनों प्रकार के होते हैं। इन दोनों (सम्मूर्छिम और गर्भज पंचेन्द्रिय) की दो जातियाँ हैं
(१) तिर्यन्च, (२) मनुष्य । तिर्यन्च जाति के मुख्य प्रकार तीन हैं१. जलचर—मत्स्य आदि। २. स्थलचर-गाय, भैंस आदि। . (क) उरपरिसर्प-रेंगने वाले प्राणी-सांप आदि। (ख) भुजपरिसर्प-भुजा के बल पर चलने वाले प्राणी-नेवला आदि ।
ये स्थलचर की उपशाखाएँ हैं। ३. खेचर-पक्षी।
सम्मूर्छिम जीवों का जाति-विभाग गर्भज जीवों के जाति-विभाग जैसा सुस्पष्ट और संबद्ध नहीं होता।
आकृति-परिवर्तन और अवयवों की न्यूनाधिकता पं. आधार पर जाति-विकास की जो कल्पना है, वह औपचारिक है, तात्त्विक नहीं। सेव के वृक्ष की लगभग दो हजार जातियां मानी जाती हैं। भिन्न-भिन्न देशों की मिट्टी में बोया हुआ बीज भिन्न-भिन्न प्रकार के पौधों के रूप में परिणत होता है। उनके फूलों और फलों में वर्ण, गन्ध, रस आदि का अन्तर भी आ जाता है। 'कलम' के द्वारा भी वृक्षों में आकस्मिक परिवर्तन किया जाता है। इसी प्रकार तिर्यन्च और मनुष्य के शरीर पर भी विभिन्न परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। शीत-प्रधान देश में मनुष्य का रंग श्वेत होता है, उष्ण-प्रधान देश में श्याम। यह परिवर्तन मौलिक नहीं है। वैज्ञानिक प्रयोगों के द्वारा औपचारिक परिवर्तन के उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। मौलिक परिवर्तन प्रयोग-सिद्ध नहीं हैं। १. मनुष्य के मल, मूत्र, लहू आदि अशुचि-स्थान में उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रिय
जीव सम्मूर्छिम मनुष्य कहलाते हैं।