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________________ विश्व : विकास और ह्रास ওও रसायनशास्त्र के पंडित कहते हैं कि आलपिन के सिरे के बराबर बर्फ के टुकड़े में १०,००,००,००,००,००,००,००,००० अणु हैं। इन उदाहरणों को देखते हुए साधारण जीवों की एक शरीराश्रयी स्थिति में कोई संदेह नहीं होता। आग में तपा लोहे का गोला अग्निमय होता है, वैसे साधारण वनस्पति शरीर जीवनमय होता है। साधारण-वनस्पति जीवों का परिमाण __ लोकाकाश के असंख्य प्रदेश हैं। उसके एक-एक आकाश-प्रदेश पर एक-एक निगोद-जीव को रखते चले जाइए। वे एक लोक में नहीं समायेंगे, दो-चार में भी नहीं। वैसे अनन्त लोक आवश्यक होंगे। इस काल्पनिक संख्या से उनका परिणामी समझाइए। उनकी शारीरिक स्थिति संकीर्ण होती है। इसी कारण वे ससीम. लोक में समा रहे हैं। प्रत्येक-वनस्पति प्रत्येक वनस्पति जीवों के शरीर पृथक्-पृथक् होते हैं। प्रत्येक जीव अपने शरीर का निर्माण स्वयं करता है। उनमें पराश्रयता भी होती है। एक घटक जीव के आश्रय में असंख्य जीव पलते हैं। वृक्ष के घटक बीज में एक जीव होता है। उसके आश्रय में पत्र, पुष्प और फूल के असंख्य जीव उपजते हैं। बीजावस्था के सिवाय वनस्पति-जीव संघातरूप में रहते हैं। श्लेष्म-द्रव्य-मिश्रित सरसों के दाने अथवा तिलपपड़ी के तिल एक रूप बन जाते हैं, तब भी उनकी सत्ता पृथक्-पृथक् रहती है। प्रत्येक वनस्पति के शरीरों की भी यही बात है। शरीर की संघात-दशा में भी उनकी सत्ता स्वतंत्र रहती है। प्रत्येक-वनस्पति जीवों का परिमाण साधारण वनस्पति जीवों की भाँति प्रत्येक वनस्पति का एक एक जीव लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर रखा जाए तो ऐसे असंख्य लोक बन जाएँ। यह लोक असंख्य आकाश-प्रदेश वाला है, ऐसे असंख्य लोकों के जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उतने प्रत्येक-शरीरी वनस्पति जीव हैं। इन्द्रिय-विकास की अपेक्षा से जीवों के भेद प्राणियों की मौलिक जातियाँ पाँच हैं। एकेन्द्रिय (एक इन्द्रिय वाले प्राणी), द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। वे क्रम-विकास से उत्पन्न नहीं, स्वतंत्र
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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