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जैन दर्शन और संस्कृति निधान पर फैलते हैं। इससे जाना जाता है कि वनस्पति में क्रोध, मान, माया और लोभ भी हैं। लताएँ वृक्षों पर चढ़ने के लिए अपना मार्ग पहले से तय कर लेती हैं, इसलिए वनस्पति में ओघ-संज्ञा' है। रात्रि में कमल सिकुड़ते हैं, इसलिए वनस्पति में लोक संज्ञा है।
वृक्षों में जलादि सींचते हैं, वह फलादि के रस के रूप में परिणत हो जाता है, इसलिए वनस्पति में श्वसन, चयापचय आदि जैविक क्रियाओं का सद्भाव है। इस प्रकार अनेक युक्तियों से वनस्पति की सचेतनता सिद्ध है। संघीय जीवन
वनस्पतिकाय के भेद हैं—साधारण और प्रत्येक। एक शरीर में अनंत जीव होते हैं, वह साधारण-शरीरी, अनंत-काय या सूक्ष्म-निगोद है। एक शरीर में एक ही जीव होता है, वह प्रत्येक शरीरी है।
साधारण-वनस्पति का जीवन संघ-बद्ध होता है। फिर भी उनकी आत्मिक सत्ता पृथक्-पृथक् रहती है। कोई भी जीव अपना अस्तित्व नहीं गंवाता। उन एक शरीराश्रयी अनन्त जीवों के सूक्ष्म शरीर तैजस और कार्मण पृथक्-पृथक् होते हैं। उन पर एक दूसरे का प्रभाव नहीं होता। उनके साम्यवादी जीवन की परिभाषा करते हुए बताया है कि साधारण वनस्पति का एक जीव जो कुछ आहार आदि पुद्गल-समूह का ग्रहण करता है, वह तत्-शरीरस्थ शेष सभी जीवों के उपभोग में आता है और बहुत सारे जीव जिन पुद्गलों का ग्रहण करते हैं, वे एक जीव के उपभोग्य बनते हैं। उनके आहार-नीहार, उच्छ्वास-नि:श्वास, शरीर-निर्माण और मौत-ये सभी साधारण कार्य एक साथ होते हैं। साधारण जीवों का प्रत्येक शारीरिक कार्य साधारण होता है। पृथक्-शरीर मनुष्यों के कृत्रिम संघों में ऐसी साधारणता कभी नहीं आती। साधारण जीवों का स्वाभाविक संघात्मक जीवन साम्यवाद का उत्कृष्ट उदाहरण है।
___ जीव अमूर्त है इसलिये वे क्षेत्र नहीं रोकते । क्षेत्र-निरोध स्थूल पौद्गलिक वस्तुएँ ही करती हैं। साधारण जीवों के स्थूल शरीर पृथक्-पृथक् नहीं होते। जो जो निजी शरीर हैं, वे सूक्ष्म होते हैं, इसलिए एक सुई के अग्र भाग जितने-से छोटे शरीर में अनन्त जीव समा जाते हैं।
सूई की नोक टिके, उतने 'लक्ष्यपाक' तेल में एक लाख औषधियों की अस्तिता होती है। औषधियों के परमाणु उसमें मिले हुए होते हैं। इससे अधिक सूक्ष्मता आज के विज्ञान में देखिए- .. १. ओघ संज्ञा-अनुकरण की प्रवृत्ति । २. लोकसंज्ञा-व्यक्त चेतना का विशेष उपयोग।