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________________ विश्व : विकास और हास ७५ हैं, और मरते हैं । अन्त में उन्होंने यह प्रमाणित किया कि संसार के सभी पदार्थ सचेतन हैं । 1 वेदान्त की भाषा में सभी पदार्थों में एक ही चेतन प्रवाहित हो रहा है जैन दर्शन की भाषा में समूचा संसार अनन्त जीवों में व्याप्त है । एक अणु - मात्र प्रदेश भी जीवों से खाली नहीं है । वनस्पति की सचेतनता सिद्ध करते हुए उसकी मनुष्य के साथ तुलना की गई है। जैसे मनुष्य - शरीर जाति (जन्म) - धर्मक है, वैसे वनस्पति भी जाति-धर्मक है । जैसे मनुष्य- शरीर बालक, युवक तथा वृद्ध अवस्था प्राप्त करता है, वैसे वनस्पति शरीर भी । जैसे मनुष्य सचेतन है, वैसे वनस्पति भी । जैसे मनुष्य शरीर छेदन करने से मलिन हो जाता है, वैसे वनस्पति का शरीर भी । जैसे मनुष्य शरीर आहार करने वाला है, वैसे ही वनस्पति शरीर भी । जैसे मनुष्य शरीर अनित्य है, वैसे वनस्पति का शरीर भी । जैसे मनुष्य का शरीर अशाश्वत है (प्रतिक्षण मरता है), वैसे ही वनस्पति के शरीर की भी प्रतिक्षण मृत्यु होती है । जैसे मनुष्य - शरीर में इष्ट और अनिष्ट आहार की प्राप्ति से वृद्धि और हानि होती है, वैसे ही वनस्पति के शरीर में भी । जैसे मनुष्य- शरीर विविध परिणमन-युक्त है अर्थात् रोगों के सम्पर्क से पाण्डुत्व (फीकापन) वृद्धि, सूजन, कृशता, छिद्र आदि युक्त हो जाता है और औषधि सेवन से कांति, बल, पुष्टि आदि युक्त हो जाता है, वैसे वनस्पति-शरीर भी नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त होकर पुष्प, फल और त्वचा-विहीन हो जाता है और औषधि के संयोग से पुष्प, फलादि युक्त हो जाता है, अत: वनस्पति चेतनायुक्त है 1 वनस्पति के जीवों में भी अव्यक्त रूप से आहार आदि दस संज्ञा का अर्थ है— अनुभव। इनको सिद्ध करने के लिए टीकाकारों ने उपयुक्त उदाहरण भी खोज निकाले हैं। वृक्ष जल का आहार तो करते ही हैं। इसके सिवाय 'अमर बेल' अपने आस-पास होने वाले वृक्षों का सार खींच लेती है। कई वृक्ष रक्त शोषक भी होते हैं इसलिए वनस्पति में आहार - संज्ञा होती है । 'छुई-मुई' आदि स्पर्श के भय से सिकुड़ जाती है, इसलिए वनस्पति में भय - संज्ञा होती है । 'कुरुबक' नामक वृक्ष स्त्री के आलिंगन से पल्लवित हो जाता है और वनस्पति में मैथुन-संज्ञा है। लताएँ अपने तन्तुओं से वृक्ष को वेष्टित कर लेती हैं, इसलिए वनस्पति में परिग्रह-संज्ञा है । 'कोकनद' (रक्तोत्पल) का कंद क्रोध से हुंकार करता है । 'सिदती' नाम की बेल मान से झरने लग जाती है । लताएँ अपने फलों को माया से ढांक लेती हैं। बिल्व और पलाश आदि वृक्ष लोभ से अपने मूल
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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