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________________ ७४ जैन दर्शन और संस्कृति इनकी सजीवता का बोध कराने के लिए पूर्ववर्ती आचार्यों ने तुलनात्मक युक्तियाँ भी प्रस्तुत की हैं। जैसे १. मनुष्य-शरीर में समानजातीय मांसांकुर पैदा होते हैं, वैसे ही पृथ्वी में भी समानजातीय अंकुर पैदा होते हैं इसलिए वह सजीव है। २. अण्डे का प्रवाही रस सजीव होता है। पानी भी प्रवाही है, इसलिए सजीव है। गर्भकाल के प्रारम्भ में मनुष्य तरल होता है, वैसे ही पानी तरल है, इसलिए सजीव है। ३. जुगनू का प्रकाश और मनुष्य के शरीर में ज्वरावस्था में होने वाला ताप जीव-संयोगी है। वैसे ही अग्नि का प्रकाश और ताप जीव-संयोगी है। आहार के भाव और अभाव में होने वाली वृद्धि और हानि की अपेक्षा से मनुष्य और अग्नि की समान स्थिति है। दोनों का जीवन वायु सापेक्ष है। वायु के बिना मनुष्य नहीं जीता, वैसे अग्नि भी नहीं जीती। मनुष्य में जैसे प्राणवायु (आक्सीजन) का ग्रहण और विषवायु (कार्बन-डाई-आक्साइड) का उत्सर्ग होता है, वैसे अग्नि में भी होता है इसलिए वह मनुष्य की भांति सजीव है। सूर्य का प्रकाश भी जीव-संयोगी है। सूर्य 'आतप' नामकर्मोदययुक्त पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर-पिण्ड है। ४. वायु में व्यक्त प्राणी की भांति अनियमित स्वप्रेरित गति होती है। इससे उसकी सचेतनता का अनुमान किया जा सकता है। स्थूल पुद्गल-स्कंधों में अनियमित गति पर-प्रेरणा से होती है, स्वयं नहीं। __ पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु–ये चार जीव-निकाय हैं। इनमें से प्रत्येक में असंख्य-असंख्य जीव हैं। मिट्टी का छोटा-सा एक ढेला, पानी की एक बूंद, अग्नि की एक चिनगारी, वायु का एक सूक्ष्म भाग–ये सब असंख्य जीवों के असंख्य शरीरों के पिण्ड हैं। इनके एक जीव का एक शरीर अति-सूक्ष्म होता है, इसलिए वह दृष्टि का विषय नहीं बनता। हम इनके पिण्डीभूत असंख्य शरीरों को देख सकते हैं। ५. वनस्पति का चैतन्य पूर्ववर्ती निकायों से स्पष्ट है। इसे जैनेतर दार्शनिक भी सजीव मानते आए हैं और वैज्ञानिक जगत् में भी इनके चैतन्य सम्बन्धी विविध्न परीक्षण हुए हैं। बेतार की तरंगों (wireless waves) के बारे में अन्वेषण करते समय जगदीशचन्द्र बसु को यह अनुभव हुआ कि धातुओं के परमाणु पर भी अधिक दबाव पढ़ने से रुकावट आती है और उन्हें फिर उत्तेजित करने पर वह दूर हो जाती है। उन्होंने सूक्ष्म छानबीन के बाद बताया कि धान्य आदि पदार्थ भी थकते हैं, चंचल होते हैं, विष से मुरझाते हैं, नशे में मस्त होते
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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