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विश्व : विकास और ह्रास
७३ ७. उद्भिद्-सम्मूर्छिम प्राणियों में जो भूमि को भेदकर निकलने वाले प्राणी होते हैं, वे उद्भिद् कहलाते हैं। जैसे-टिड्डी आदि।
८. उपपातज-शय्या एवं कुम्भी में उत्पन्न होने वाले उपपातज हैं। जैसे-देवता, नारक। उत्पत्ति-स्थान
सब प्रकार के प्राणी (जिन्हें भूत, जीव और सत्त्व भी कहा जाता है) नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं, वहीं रहते हैं और वृद्धि को प्राप्त करते हैं। वे शरीर से उत्पन्न होते हैं, शरीर में रहते हैं, शरीर में वृद्धि को प्राप्त करते हैं
और शरीर का ही आहार करते हैं। वे कर्म के अनुगामी हैं। कर्म ही उनकी उत्पत्ति, स्थिति और गति का आदि कारण है। वे कर्म के प्रभाव से ही विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं।
प्राणियों के उत्पत्ति-स्थान ८४ लाख हैं और उनके 'कुल' (योनि का उपवर्ग) एक करोड़ साढ़े सत्तानवे लाख (१,९७,५०,०००) हैं। एक उत्पत्ति-स्थान में अनेक कुल होते हैं। जैसे-गोबर एक ही योनि है और उसमें कृमि-कुल, कीट-कुल, वृश्चिक कुल आदि अनेक कुल हैं।
उत्पत्ति-स्थान एवं कुल-कोटि के अध्ययन से जाना जाता है कि प्राणियों की विविधता एवं भिन्नता का होना असंभव नहीं ।
स्थावर-जगत्
त्रस जीवों में गति, अगति, भाषा, इच्छा-व्यवन्तीकरण आदि-आदि चैतन्य के स्पष्ट चिह्न प्रतीत होते हैं, इसलिए उनकी सचेतनता में कोई संदेह नहीं होता। स्थावर जीवों में जीव के व्यावहारिक लक्षण स्पष्ट प्रतीत नहीं होते, इसलिए उनकी सजीवता चक्षुगम्य नहीं है। जैन सूत्र बताते हैं-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति-ये पाँचों स्थावर काय सजीव हैं। इसका आधारभूत सिद्धान्त यह है-हमें जितने पुदगल दीखते हैं, ये सब जीवत्-शरीर या जीव-मुक्त शरीर हैं। जिन पुद्गल-स्वंधों को जीव अपने शरीर-रूप में परिणत कर लेते हैं, उन्हीं को हम देख सकते हैं, दूसरों को नहीं । पाँच-स्थावर के रूप में परिणत पुदगल दृश्य हैं। इससे प्रमाणित होता है कि ये सजीव हैं। जिस प्रकार मनुष्य का शरीर उत्पत्तिकाल में सजीव ही होता है, उसी प्रकार पृथ्वी आदि के शरीर भी प्रारम्भ से सजीव ही होते हैं। जिस प्रकार स्वाभाविक अथवा प्रायोगिक मृत्यु से मन्ष्य-शरीर निर्जीव या आत्मा-रहित हो जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी आदि के शरीर भी स्वाभाविक या प्रायोगिक मृत्यु से निर्जीव बन जाते हैं।