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________________ जैन दर्शन और संस्कृति I ध्येय की ओर बढ़ने से जीव का आध्यात्मिक विकास होता है — ऐसी कुछ दार्शनिकों की मान्यता है किन्तु ये दार्शनिक विचार भी बाह्य प्रेरणा हैं। आत्मा स्वतः स्फूर्त है । वह ध्येय की ओर बढ़ने के लिए बाध्य नहीं, स्वतंत्र है । ध्येय की उचित रीति समझ लेने के बाद वह उसकी ओर बढ़ने का प्रयत्न कर सकती है । उचित सामग्री मिलने पर वह प्रयत्न सफल भी हो सकता है किन्तु 'ध्येय की ओर प्रगति' का यह सर्वसामान्य नियम नहीं है । यह काल, स्वभाव, नियति, उद्योग आदि विशेष सामग्री - सापेक्ष है । ७० वैज्ञानिक विकासवाद बाह्य स्थितियों का आकलन है । अतीत की अपेक्षा विकास की परम्परा आगे बढ़ती है, यह निश्चित सत्य नहीं है । किन्हीं का विकास हुआ है तो किन्हीं का ह्रास भी हुआ है । अतीत ने नयी आकृतियों की परम्परा को आगे बढ़ाया है, तो वर्तमान ने पुराने रूपों को अपनी गोद में समेटा भी है इसलिए अकेले अवसर की दी हुई अधिक स्वतन्त्रता मान्य नहीं हो सकती। विकास बाह्य परिस्थति द्वारा परिचालित हो, तो वह स्वतन्त्र नहीं हो सकती । परिस्थिति का दास बनकर आत्मा कभी अपना विकास नहीं साध सकती । दो सदा चलते हैं । इनके ये । पुद्गल की शक्तियों का विकास और हास — विकास या ह्रास का निरवधिक चरम रूप नहीं है शक्ति की दृष्टि से एक पौद्गलिक स्कन्ध में अनन्त - गुण तारतम्य हो जाता है। आकार - रचना की दृष्टि से एक-एक परमाणु मिलकर अनन्तप्रदेशी स्कंध बन जाता है और फिर वे बिखरकर एक-एक परमाणु बन जाते हैं । पुद्गल अचेतन है, इसलिए उसका विकास या ह्रास चैतन्य - प्रेरित नहीं होता । जीव के विकास या ह्रास की यह विशेषता है कि उसमें चैतन्य होता है, इसलिए उसके विकास - ह्रास में बाहरी प्रेरणा के अतिरिक्त आंतरिक प्रेरणा भी होती है। जीव (चैतन्य) और शरीर का लोलीभूत संश्लेष होता है, इसलिए आंतरिक प्रेरणा के दो रूप बन जाते हैं— आत्म-जनित और शरीर-जनित । आत्म-जनित आंतरिक प्रेरणा से आध्यात्मिक विकास होता है और शरीर-जनित से शारीरिक विकास | शरीर पाँच हैं। उनमें दो सूक्ष्म हैं और तीन स्थूल । सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर का प्रेरक होता है। इसकी वर्गणाएँ शुभ-अशुभ दोनों प्रकार की होती हैं । शुभ वर्गणाओं के उदय से पौद्गलिक या शारीरिक विकास होता है और अशुभ वर्गणाओं के उदय से आत्म- चेतना का ह्रास, आवरण और शारीरिक स्थिति का भी ह्रास होता है ।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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