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विश्व : विकास और ह्रास
८. लोक और जीवों का आधार-आधेय सम्बन्ध-जितने क्षेत्र का नाम लोक है, उतने क्षेत्र में जीव हैं और जितने क्षेत्र में जीव हैं, उतने क्षेत्र का नाम लोक है।
९. लोक-मर्यादा-जितने क्षेत्र में जीव और पुद्गल गति कर सकते हैं, उतना क्षेत्र 'लोक' है और जितना क्षेत्र 'लोक' है उतने क्षेत्र में जीव और पुद्गल गति कर सकते हैं।
१०. अलोक-गति-कारणाभाव-लोक के सब अन्तिम भागों में पुद्गल स्वभाव से ही रूक्ष होते हैं। वे गति में सहायता करने की स्थिति में संगठित नहीं हो सकते। उनकी सहायता के बिना जीव अलोक में गति नहीं कर सकते। विकास और ह्रास
_ विकास और ह्रास-ये परिवर्तन के मुख्य पहलू हैं। एकान्तनित्य-स्थिति में न विकास हो सकता है और न ह्रास । परिणामी नित्यत्व के अनुसार ये दोनों हो सकते हैं। विकास और ह्रास जीव और पुद्गल—इन दो द्रव्यों में होता है। जीव का अन्तिम विकास है-मुक्त-दशा। यहाँ पहुंचने पर फिर ह्रास नहीं होता। इससे पहले आध्यात्मिक क्रम-विकास की जो चौदह भूमिकाएँ हैं, उनमें आठवीं (क्षपक श्रेणी) भूमिका पर पहुंचने के बाद मुक्त बनने से पहले क्षण तक क्रमिक विकास होता है। इससे पहले विकास और ह्रास-ये दोनों चलते हैं। कभी ह्रास से विकास और कभी विकास से ह्रास होता रहता है। विकास-दशाएँ ये हैं
१. अव्यवहार राशि.....साधारण-वनस्पति (एक शरीर में अनन्त जीव)।
२. व्यवहार राशि......प्रत्येक वनस्पति (एक शरीर में एक जीव) साधारण-वनस्पति। (क) एकेन्द्रिय .........साधारण-वनस्पति, प्रत्येक वनस्पति, पृथ्वी, पानी, तेजस्,
वायु । (ख) द्विन्द्रियं । (ग) त्रीन्द्रिय। (घ) चतुरिन्द्रिय। (ङ) पंचेन्द्रिय......अमनस्क, समनस्क।
प्रत्येक प्राणी इन सबको क्रमश: पार करके आगे बढ़ता है, यह बात नहीं। इनका उत्क्रमण भी होता है। यह प्राणियों की योग्यता का क्रम है, उत्क्रान्ति का क्रम नहीं। उत्क्रमण और अपक्रमण जीवों की आध्यात्मिक योग्यता और सहयोगी परिस्थितियों के समन्वय पर निर्भर है।