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________________ विश्व : विकास और ह्रास जीवन-प्रवाह के बारे में अनेक धारणाएँ हैं। बहत सारे इसे अनादि-अनन्त मानते हैं तो बहुत सारे सादि-सांत । जीवन-प्रवाह को अनादि-अनंत मानने वालों की उसकी उत्पत्ति पर विचार करने की आवश्यकता नहीं होती। चैतन्य कब, कैसे और किससे उत्पन्न हुआ—ये समस्याएँ उन्हें सताती हैं जो असत् से सत् की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं। 'उपादान' की. मर्यादाओं को स्वीकार करने वाले असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं मान सकते। नियामकता की दृष्टि से ऐसा होना भी नहीं चाहिए, अन्यथा समझ से परे की अवस्था उत्पन्न हो जाती है। जैन दृष्टि के अनुसार यह जगत् अनादि-अनंत है। इसकी मात्रा न घटती है, न बढ़ती है, केवल रूपान्तर होता है। .. विश्व-स्थिति का मूल सूत्र विश्व-स्थिति के आधारभूत कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र इस प्रकार हैं१. पूर्वजन्म-जीव मर कर बार-बार जन्म लेते हैं। २. कर्मबन्ध-जीव सदा (प्रवाहरूपेण अनादिकाल से) कर्म बांधते हैं। ३. मोहनीय-कर्मबन्ध-जीव सदा (प्रवाहरूपेण अनादिकाल से) निरन्तर मोहनीय कर्म बांधते हैं। ४. जीव-अजीव का अत्यन्ताभाव-ऐसा न तो हुआ, न भाव्य है और न होगा कि जीव-अजीव हो जाए और अजीव जीव हो जाए। ५. त्रस-स्थावर-अविच्छेद-ऐसा न तो हुआ, न भाव्य है और न होगा कि सभी त्रस (चलने-फिरने वाले) जीव स्थावर (गमन करने में असमर्थ) बन जाएँ या सभी स्थावर जीव त्रस बन जाएँ या सभी जीव केवल त्रस या केवल स्थावर हो जाएँ। ६. लोकालोक पृथक्त्व-ऐसा न हुआ, न भाव्य है और न होगा कि लोक अलोक हो जाए और अलोक लोक हो जाए। ७. लोकालोक अन्योन्याऽप्रवेश-ऐसा न तो हुआ, न भाव्य है और न होगा कि लोक अलोक में प्रवेश करे और अलोक लोक में प्रवेश करे ।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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