________________
विश्व : विकास और ह्रास
७१ । जैन-दृष्टि के अनुसार चेतना और अचेतन-पुद्गल-संयोगात्मक सृष्टि का विकास क्रमिक ही होता है, ऐसा नहीं है। विकास और ह्रास के कारण
चेतना के व्यक्तिश: विकास और ह्रास का मुख्य कारण है आन्तरिक प्रेरणा या आंतरिक स्थिति या आंतरिक योग्यता और सहायक कारण है बाहरी स्थिति । बाहरी स्थितियाँ केवल आंतरिक वृत्तियों को जगाती हैं, उनका नये सिरे से निर्माण नहीं करतीं। चेतन में योग्यता होती है, वही बाहरी स्थिति का सहारा पा विकसित हो जाती है।
१. अन्तरंग योग्यता और बहिरंग अनुकूलता-कार्य उत्पन्न होता है। २. अन्तरंग अयोग्यता, बहिरंग अनुकूलता–कार्य उत्पन्न नहीं होता। ३. अन्तरंग योग्यता, बहिरंग प्रतिकूलता-कार्य उत्पन्न नहीं होता। ४. अन्तरंग अयोग्यता, बहिरंग प्रतिकूलता-कार्य उत्पन्न नहीं होता।
इससे यह स्पष्ट है कि जो सिद्धान्त केवल बाहरी स्थितियों को महत्त्व देता है, वह उपयुक्त नहीं है।
प्रत्येक प्राणी में दस संज्ञाएँ होती हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, लोक और ओघ । (संज्ञाओं के बारे में आगे चर्चा की गई है)। इन संज्ञाओं के साथ सहज ही जीवन-सुख की कुछ आकांक्षाएँ या एषणाएँ भी होती हैं जिनमें तीन एषणाएँ मुख्य हैं
१. प्राणैषणा-मैं जीवित रहूं। २. पुत्रैषणा–मेरी संतति चले। ३. वित्तैषणा-मैं धनी बनूं ।
अर्थ और काम की इस आंतरिक प्रेरणा तथा भूख, प्यास, ठंडक, गर्मी आदि-आदि बाहरी स्थितियों के प्रभाव से प्राणी की बहिर्मुखी वृत्तियों का विकास होता है। यह एक जीवनगत-विकास की स्थिति है। विकास का प्रवाह भी चलता है। एक पीढ़ी का विकास दूसरी पीढ़ी को अनायास मिल जाता है किन्तु उद्भिद्-जगत् से लेकर मनुष्य-जगत् तक का जो विकास है, वह पहली पीढ़ी के विकास की देन नहीं है। यह व्यक्ति-विकास की स्वतन्त्र गति है। उद्भिद्-जगत् से भिन्न जातियाँ उसकी शाखाएँ नहीं, किन्तु स्वतन्त्र हैं। उद्भिद् जाति का एक जीव पुनर्जन्म के माध्यम से मनुष्य बन सकता है। यह जातिगत विकास नहीं, व्यक्तिगत विकास है।