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पहले अण्डा या पहले मुर्गी ?
१. आत्मा शाश्वत है, तो विनाश और परिवर्तन कैसे? यदि वह अशाश्वत है, तो अतीत, अनागत, नवीन, पुरातन आदि-आदि भेद कैसे? .
२. आत्मा शाश्वत है, तो मृत्यु कैसे? यदि अशाश्वत है, तो विभिन्न चैतन्य-सन्तति की एकात्मकता कैसे?
३. आत्मा शरीर से भिन्न है, तो शरीर में सुख-दुःख की अनुभूति कैसे? यदि वह शरीर से अभिन्न है, तो शरीर और आत्मा-ये दो पदार्थ क्यों?
४. जीवों की विचित्रता कर्म-कृत है, तो साम्यवाद कैसे? यदि वह अन्यकृत है, तो कर्मवाद क्यों?
५. कर्म का कर्ता और भोक्ता यदि जीव ही है, तो बुरे कर्म और उसके फल का उपभोग कैसे? यदि जीव कर्ता-भोक्ता नहीं है, तो कर्म और कर्म-फल से उसका सम्बन्ध कैसे?
इन समस्याओं का समाधान जैन दार्शनिकों ने इस प्रकार किया है
१. लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी। काल की अपेक्षा से लोक शाश्वत है। ऐसा कोई काल नहीं, जिसमें लोक का अस्तित्व न मिले। त्रिकाल में वह एकरूप नहीं रहता, इसलिए वह अशाश्वत भी है। जो एकांतत: शाश्वत होता है, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता, इसलिए वह अशाश्वत है। जो एकान्ततः अशाश्वत होता है, उसमें अन्वयी-सम्बन्ध नहीं हो सकता। पहले- क्षण में होने वाला लोक दूसरे क्षण अत्यन्त उच्छिन्न हो जाए, तो फिर 'वर्तमान' के अतिरिक्त अतीत, अनागत आदि का भेद नहीं घटता। कोई ध्रुव पदार्थ हो—त्रिकाल में टिका रहे, तभी वह था, है और रहेगा–यों कहा जा सकता है। पदार्थ यदि क्षण-विनाशी ही हो, तो अतीत (भूत) और अनागत (भविष्य) के भेद का कोई आधार ही नहीं रहता इसलिए विभिन्न पर्यायों के बावजूद भी 'लोक शाश्वत है' यह माने बिना भी स्थिति स्पष्ट नहीं होती।
२. आत्मा के लिए भी यही बात है। वह शाश्वत और अशाश्वत दोनों
द्रव्यत्व की दृष्टि से शाश्वत है-आत्मा पूर्व और उत्तर सभी क्षणों में रहती है, अन्वयी है, चैतन्य-पर्यायों का संकलनकर्ता है।
पर्याय की दृष्टि से अशाश्वत है—विभिन्न रूपों में-एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक अवस्था से दूसरी अवस्था में उसका परिणमन होता है।
३. आत्मा शरीर से भिन्न भी है, अभिन्न भी। स्वरूप की दृष्टि से भिन्न है और संयोग एवं उपकार की दृष्टि से अभिन्न। आत्मा का स्वरूप चैतन्य है और शरीर का स्वरूप जड़; इसलिए ये दोनों भिन्न हैं। संसारावस्था में आत्मा और