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________________ ६६ जैन दर्शन और संस्कृति शरीर का दूध-पानी की तरह, लोह-अग्निपिण्ड की तरह एकात्म्य संयोग होता है, इसलिए शरीर से किसी वस्तु का स्पर्श होने पर आत्मा में संवेदन होता है। ४. एक जीव की स्थिति दूसरे जीव से भिन्न है। उसका कारण कर्म अवश्य हैं, किन्तु केवल कर्म ही नहीं, उसके अतिरिक्त काल, स्वभाव, नियति, उद्योग आदि अनेक तत्त्व हैं। कर्म दो प्रकार का होता है-सोपक्रम और निरुपक्रम अथवा सापेक्ष और निरपेक्ष । फल-काल में कई कर्म बाहरी स्थितियों की अपेक्षा नहीं रखते और कई रखते हैं। कई कर्म विपाक के अनुकूल सामग्री मिलने पर फल देते हैं और कई उसके बिना भी। कर्मोदय अनेकविध होता है, इसलिए कर्मवाद का साम्यवाद से विरोध नहीं है। कर्मोदय की सामग्री समान होने पर प्राणियों की स्थिति बहुत कुछ समान हो सकती है, होती भी है। जैन सूत्रों में कल्पातीत देवताओं की समान स्थिति का जो वर्णन है, वह आज के इस साम्यवाद से कहीं अधिक रोमांचकारी है। कल्पातीत देवों की ऋद्धि, द्युति, यश, बल, अनुभाव, सुख आदि समान होता है, उनमें न कोई स्वामी होता है और न कोई सेवक, वे सब अहमिन्द्र-स्वयं इन्द्र हैं। अनेक देशों में तथा समूचे भू-भाग में यदि खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज समान हो जाएँ, स्वामी-सेवक का भेद-भाव मिट जाए, राज्य-सत्ता जैसी कोई केन्द्रित शक्ति न रहे, तो उससे कर्मवाद की स्थिति में कोई आंच नहीं आती। रोटी की सुलभता से ही विषमता नहीं मिटती। प्राणियों में विविध प्रकार की गति, जाति, शरीर, अंगोपांग संबंधी विसदृशता है। उसका कारण उनके अपने विभिन्न कर्म ही हैं। एक पशु है तो एक मनुष्य, एक दो इन्द्रियवाला कृमि है तो एक पाँच इन्द्रियवाला मनुष्य। यह विषमता वन्यों? इसका कारण स्वोपार्जित कर्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। ५. मुक्त आत्माएँ कर्म की कर्ता, भोक्ता कुछ भी नहीं हैं। बद्ध आत्माएँ कर्म करती हैं और उनका फल भोगती हैं। उनके कर्म का प्रवाह अनादि है और वह कर्म-मूल नष्ट न होने तक चलता रहता है। आत्मा स्वयं कर्ता-भोवता होकर भी जिन कर्मों का फल अनिष्ट हो, वैसे कर्म क्यों करे और कर भी ले तो उसका अनिष्ट फल स्वयं क्यों भोगे? इस प्रश्न के मूल में ही भूल है। आत्मा में कर्तृव्यशक्ति है, उसी से वह कर्म नहीं करती; किन्तु उसके पीछे राग-द्वेष, स्वत्व-परत्व की प्रबल प्रेरणा होती है। पूर्वकर्म-जनित वेग से आत्मा पूर्णतया दबती नहीं, तो सब जगह उसे टाल भी नहीं सकती। एक बुरा कर्म आगे के लिए भी आत्मा में बुरी प्रेरणा छोड़ देता है। भोक्तृत्व-शक्ति की भी यही बात है। आत्मा में बुरा फल भोगने की चाह नहीं होती, पर बुरा या भला फल चाह
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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