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________________ ६४ जैन दर्शन और संस्कृति सर्वथा रहित हो जाती है। तुम्बा जैसे पानी पर तैरने लग जाता है, वैसे ही बन्धनमुक्त आत्मा लोक के अग्रभाग में अवस्थित हो जाती है। मुक्त आत्मा में . वैभाविक परिवर्तन नहीं होता, स्वाभाविक परिवर्तन अवश्य होता है। वह वस्तुमात्र का अवश्यम्भावी धर्म है। परिवर्तन और विकास की मर्यादा सत्य की व्याख्या अनेकान्तदृष्टि से ही हो सकती है। परिवर्तन विश्व-व्यवस्था का एक अंग है। किन्तु विश्व-व्यवस्था पर उनका पूर्ण नियन्त्रण नहीं है.। विश्व के अंचल में शाश्वत (अंचल) तत्त्व भी विद्यमान है। __ कुछ कार्य प्रवृत्ति-जनित हैं, कुछ नैसर्गिक हैं। इस बहुरूपी व्यवस्था के रहस्यों को उद्घाटित करने के लिए जैन दर्शन ने कुछ सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं, उनका ज्ञान बहुत उपयोगी है। असम्भाव्य-कार्य १. अजीव को जीव नहीं बनाया जा सकता। २. जीव को अजीव नहीं बनाया जा सकता। ३. एक 'समय' में दो भाषा (सत्य, असत्य, मिश्र, व्यवहार-इन चार भाषाओं में से) नहीं बोली जा सकती। ४. अपने किए कर्मों के फलों को इच्छा-अधीन नहीं किया जा सकता। ५. वास्तविक परमाणु नहीं तोड़ा जा सकता। ६. अलोक में नहीं जाया जा सकता। सर्वज्ञ या विशिष्ट योगी (अतीन्द्रियज्ञानी) के सिवाय कोई भी व्यक्ति इन तत्त्वों का साक्षात्कार नहीं कर सकता१. धर्म (गति-तत्त्व)। २. अधर्म (स्थिति-तत्त्व)। ३. आकाश। ४. शरीर-रहित जीव। ५. परमाणु । ६. शब्द। समस्या और समाधान लोक शाश्वत है या अशाश्वत? आत्मा शाश्वत है या अशाश्वत? आत्मा शरीर से भिन्न है या अभिन्न? जीवों में जो भेद है, वह कर्मकृत है या अन्यकृत? कर्म का कर्ता और भोक्ता स्वयं जीव है या अन्य कोई? वे अनेक समस्याएँ हैं, जो मनुष्य को संदिग्ध किए रहती हैं।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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