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पहले अण्डा या पहले मुर्गी ?
४. अनन्त शक्ति--आत्मा में विद्यमान सहज अनन्त शक्ति का अबाध स्रोत उद्घाटित हो जाता है जो संसार की किसी भी प्रकार की शक्ति से अतुलनीय है। . ५. सहज आनन्द-आत्मा में विद्यमान सहज निरपेक्ष अनन्त आनन्द का स्रोत उद्घाटित हो जाता है, जो पौद्गलिक सुख-दुःख की अनुभूति से परे है।
६. अटल अवगाह-आकाश प्रदेशों का नियत अवगाहन जो शाश्वत बना रहता है। जन्म-मृत्यु के चक्र से सदा-सदा के लिए मुक्ति ।
७. अमूर्तिकपन—आत्मा के सहज अमूर्त स्वभाव का प्रकटीकरण यानी अनादिकालीन कर्म-संयोगों के कारण होने वाले मूर्तत्व (रूप) की सदा-सदा के लिए समाप्ति ।
८. अगुरु-लघु भाव-कर्म-संयोग से निष्पन्न गुरुत्व-लघुत्व, हीन-अधिक, निम्न-उच्च आदि भावों से सदा-सदा के लिए मुक्ति । आत्मा के सहज सम स्वभाव का जागरण।
आत्मा की अनुबुद्ध-दशा (अज्ञान-दशा) में कर्म-वर्गणाएँ इन आत्मशक्तियों को दबाए रखती हैं—इन्हें पूर्ण विकसित नहीं होने देती। भवस्थिति पकने पर कर्म-वर्गणाएँ घिसती-घिसती बलहीन हो जाती हैं, तब आत्मा में कुछ सहज बुद्धि १ जागती है। यहीं से आत्म-विकास का क्रम शुरू होता है। तब से दृष्टि यथार्थ बनती है, सम्यक्त्व प्राप्त होता है। यह आत्म-जागरण का पहला सोपान है। इसमें आत्मा अपने रूप को 'स्व' और बाह्य वस्तुओं को 'पर' जान ही नहीं लेती किन्तु उसकी सहज श्रद्धा भी वैसी ही बन जाती है इसलिए इस दशा वाली आत्मा को अन्तर्-आत्मा, सम्यक्दृष्टि या सम्यक्त्वी कहते हैं। इनसे पहले की दशा में वह बहिर् आत्मा, मिथ्यादृष्टि या मिथ्यात्वी कहलाती है।
__इस जागरण के बाद आत्मा अपनी मुक्ति के लिए आगे बढ़ती है। सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान के सहारे वह सम्यक् चारित्र का बल बढ़ाती है। ज्यों-ज्यों चारित्र का बल बढ़ता है, त्यों-त्यों कर्म-वर्गणाओं का आकर्षण कम होता जाता है। सत् प्रवृत्ति या अहिंसात्मक प्रवृत्ति से पहले बंधे कर्म शिथिल हो जाते हैं। चलते-चलते ऐसी विशुद्धि बढ़ती है कि आत्मा शरीर-दशा में भी निरावरण बन जाती है। ज्ञान, दर्शन, वीतराग-भाव और शक्ति का पूर्ण या बाधाहीन या बाह्य वस्तुओं से अप्रभावित विकास हो जाता है। इस दशा में भव या शेष आयुष्य को टिकाए रखने वाले चार कर्म-भवोपग्राही कर्म' बाकी रहते हैं। जीवन के अन्त में ये भी टूट जाते हैं। आत्मा पूर्ण मुक्त या बाहरी प्रभावों से १. वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र कर्म ।