SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ जैन दर्शन और संस्कृति अभाव में द्रव्यादि कोई असर नहीं डाल सकते । कर्म पौद्गलिक हैं, अतएव पुद्गल - सामग्री उसके विपाक या परिपाक में निमित्त बनती है । कर्म के पास कर्म आता है। शुद्ध या मुक्त आत्मा के कर्म नहीं लगता । कर्म से बन्धी आत्मा का कषाय-लेप तीव्र होता जाता है । तीव्र कषाय तीव्र कम्पन पैदा करता है और उसके द्वारा अधिक कार्मण-वर्गणाएँ खींची जाती हैं । इसी प्रकार प्रवृत्ति का प्रकम्पन भी जैसा तीव्र या मन्द होता है, वैसी ही प्रचुर या न्यून मात्रा में उनके द्वारा कार्मण-वर्गणाओं का ग्रहण होता है । प्रवृत्ति सत् (शुभ) और असत् (अशुभ) दोनों प्रकार की होती हैं । सत् से सत् कर्म और असत् से असत् कर्म बँधते हैं । यही संसार, जन्म-मृत्यु या भव- परम्परा है। इस दशा में आत्मा विकारी रहती है इसलिए उस पर अनगिनत वस्तुओं और वस्तु-स्थितियों का असर होता रहता है । असर जो होता है, उसका कारण आत्मा की अपनी विकृत दशा है । विकारी दशा छूटने पर शुद्ध आत्मा पर कोई वस्तु प्रभाव नहीं डाल सकती । यह अनुभव सिद्ध बात है - अ - समभावी : व्यक्ति जिसमें राग-द्वेष का प्राचुर्य होता है, को पग-पग पर सुख-दुःख सताते हैं । उसे कोई भी व्यक्ति थोड़े में प्रसन्न और थोड़े में अप्रसन्न बना देता है । दूसरे की चेष्टाएँ उसे बदलने में भारी निमित्त बनती हैं । समभावी व्यक्ति की स्थिति ऐसी नहीं होती । कारण यही है कि उसकी आत्मा में विकार की मात्रा कम है या उसने ज्ञान द्वारा उसे उपशान्त कर रखा है । पूर्ण विकास होने पर आत्मा पूर्णतया स्वस्थ हो जाती है, इसलिए वस्तु का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता । शरीर नहीं रहता, तब उसके माध्यम से होने वाली संवेदना भी नहीं रहती । आत्मा सहजवृत्त्या अप्रकंपित है । उसमें कंपन शरीर-संयोग से होता है । अ-शरीर होने पर वह नहीं होता । शुद्ध आत्मा का स्वरूप शुद्ध आत्मा के स्वरूप की पहचान के लिए आठ मुख्य तत्त्व हैं १. अनन्त ज्ञान — सहज समुत्पन्न अबाध आत्म-ज्ञान जो इन्द्रिय या बाह्य साधनों के अपेक्षा बिना तथा बिना किसी रुकावट सीधे ही समस्त द्रव्यों और पर्यायों को जान लेता है । २. अनन्त - दर्शन — अनन्त ज्ञान की तरह जो समस्त द्रव्यों और पर्यायों को देख लेता है । ३. क्षायक सम्यक्त्व - सदा-सदा के लिए प्राप्त सम्यक् दृष्टि, जिससे यथार्थ के प्रति सहज श्रद्धा बनी रहती है ।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy