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पहले अण्डा या पहले मुर्गी ?
अनादि-वनस्पति के सिवाय और कोई व्यवहार नहीं पाया। स्त्यानर्द्धि निद्रा (घोरतम निद्रा) के उदय से ये जीव अव्यक्त-चेतना (जघन्यतम चैतन्यशक्ति) वाले होते हैं। इनमें विकास की कोई प्रवृत्ति नहीं होती। अव्यवहार-राशि से बाहर निकलकर प्राणी विकास की योग्यता को अनुकूल सामग्री पा अभिव्यक्त करता है। विकास की अन्तिम स्थिति है—शरीर का अत्यन्त वियोग या आत्मा की बन्धन-मुक्त दशा। यह प्रयत्न-साध्य है। निगोदीय जीवों की निम्नतम विकसित दशा स्वभाव-सिद्ध है।
स्थूल शरीर मृत्यु से छूट जाता है, पर सूक्ष्म शरीर नहीं छूटते इसलिए फिर प्राणी को स्थूल-शरीर बनाना पड़ता है किन्तु जब स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के शरीर छूट जाते हैं, तब फिर शरीर नहीं बनता।
आत्मा की अविकसित दशा में उस पर कषाय का लेप रहता है। इससे उसमें स्व-पर की मिथ्या कल्पना बनती है। स्व में पर की दृष्टि और पर में स्व की दृष्टि का नाम है-मिथ्यादृष्टि । पुद्गल ‘पर' है, विजातीय है, बाह्य है। उसमें स्व की भावना, आसक्ति या अनुराग पैदा होता है अथवा घृणा की भावना बनती है। ये दोनों आत्मा के आवेग या प्रकम्पन हैं अथवा प्रत्येक प्रवृत्ति आत्मा में कंपन पैदा करती है। इनसे कार्मण वर्गणाएँ संगठित हो आत्मा के साथ चिपक जाती हैं। आत्मा को हर समय अनन्त-अनन्त कार्मण वर्गणाएँ आवेष्टित किए रहती हैं। नयी कार्मण वर्गणाएँ पहले ही कार्मण वर्गणाओं से रासायनिक क्रिया द्वारा घुल-मिलकर एकमेक बन जाती हैं। सब कार्मण वर्गणाओं की योग्यता समान नहीं होती। कई चिकनी होती हैं, कई तीव्र रस वाली और कई मन्द रस वाली, इसलिए कई छूकर रह जाती हैं, कई गाढ़े बन्धन में बन्ध जाती हैं। कार्मण वर्गणाएँ कर्म बनते ही अपना प्रभाव नहीं डालतीं। आत्मा का आवेष्टन बनने के बाद जो उन्हें नई बनावट या नयी शक्ति मिलती है उसका परिपाक होने पर वे फल देने या प्रभाव डालने में समर्थ होती हैं।
वेदना चार प्रकार से भोगी जाती है। द्रव्य से-जल-वायु के अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु के संयोग से। क्षेत्र से-शीत-उष्ण आदि अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु के संयोग से।
काल से—गर्मी में हैजा, सर्दी में बुखार, निमोनिया अथवा अशुभ ग्रहों के उदय से।
भाव से—असात-वेदनीय के उदय से।
वेदना का मूल असात-वेदनीय कर्म का उदय है। जहाँ भाव से वेदना है, वहीं द्रव्य, क्षेत्र और काल उसके (वेदना के) निमित्त बनते हैं। भाव-वेदना के