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________________ ६० जैन दर्शन और संस्कृति काल के निमित्त से ही जो परिवर्तन होता है, वह स्वभाव-परिवर्तन कहलाता है। जीव के निमित्त से पुद्गल में और पुद्गल के निमित्त से जीव में जो परिवर्तन होता है, उसे कहते हैं—विभाव-परिवर्तन । स्थूल दृष्टि से हमें दो पदार्थ दिखते हैं, एक सजीव और दूसरा निर्जीव । दूसरे शब्दों में-जीवत्-शरीर और निर्जीव शरीर या जीव-मुक्त शरीर । आत्मा अमूर्त है, इसलिए अदृश्य है। पुद्गल मूर्त होने के कारण दृश्य अवयव है, पर अचेतन है। आत्मा और पुद्गल दोनों के संयोग से जीवत्-शरीर बनता है। पुद्गल के सहयोग के कारण जीव के ज्ञान को क्रियात्मक रूप मिलता है और जीव के सहयोग के कारण पुद्गल की ज्ञानात्मक प्रवृत्तियाँ होती हैं। सब जीव चेतना युक्त होते हैं किन्तु चेतना की प्रवृत्ति उन्हीं को दिख पड़ती है जो शरीर-सहित होते हैं। सब पुद्गल रूप-सहित हैं, फिर भी चर्मचक्षु द्वारा वे ही दृश्य हैं, जो जीव-युक्त या जीव-मुक्त शरीर हैं। पुद्गल दो प्रकार के होते हैं—जीव-सहित और जीव-रहित । शस्त्र-अहत सजीव और शस्त्र-हत निर्जीव होते हैं। जीव और स्थूल शरीर के वियोग के निमित्त शस्त्र कहलाते हैं। शस्त्र के द्वारा जीव शरीर से अलग होते हैं। जीव के चले जाने पर जो शरीर या शरीर के पुद्गल-स्कन्ध होते हैं—वे जीव-मुक्त शरीर कहलाते हैं। खनिज पदार्थ पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर हैं। पानी अपकायिक जीवों का शरीर है। अग्नि तैजसकायिक, हवा वायुकायिक, तृण-लता वृक्ष आदि वनस्पतिकायिक और शेष सब त्रसकायिक जीवों के शरीर हैं। जीव और शरीर का सम्बन्ध अनादि-प्रवाह वाला है। वह जब तक नहीं टूटता तब तक पुद्गल जीव पर और जीव पुद्गल पर अपना-अपना प्रभाव डालते रहते हैं। वस्तुवृत्त्या जीव पर प्रभाव डालने वाला कार्मण शरीर है। यह जीव के विकारी परिवर्तन का आंतरिक कारण है। इसे बाह्य स्थितियाँ प्रभावित करती हैं। आठों वर्गणा के पुदगल-समूह समूचे लोक में व्याप्त हैं। जब तक इनका व्यवस्थित संगठन नहीं बनता तब तक वे स्वानुकूल प्रवृत्ति के योग्य रहती हैं, किन्तु उसे कर नहीं सकती। इनका व्यवस्थित संगठन करने वाले प्राणी हैं। प्राणी अनादिकाल से कार्मण वर्गणाओं से आवेष्टित हैं। प्राणी का निम्नतम विकसित रूप 'निगोद' है। निगोद अनादि-वनस्पति है। उसके एक-एक शरीर में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं। यह जीवों का अक्षय कोष है और सबका मूल स्थान है। निगोद के जीव एकेन्द्रिय होते हैं। जो जीव निगोद को छोड़ दूसरी काय में नहीं गए, वे 'अव्यवहार-राशि' कहलाते हैं और निगोद से बाहर निकले जीव 'व्यवहार-राशि'। अव्यवहार-राशि का तात्पर्य यह है कि उन जीवों ने
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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