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________________ पहले अण्डा या पहले मुर्गी ?. ५९ हैं— चेतन और अचेतन । दोनों अनादि हैं, शाश्वत हैं । इनका पौर्वापर्य (अनुक्रम - अनुपूर्वी) सम्बन्ध नहीं है। पहले जीव और बाद में अजीव अथवा पहले अजीव और बाद में जीव - ऐसा सम्बन्ध नहीं होता। बीज वृक्ष से पैदा होता है और वृक्ष बीज से पैदा होता है- ये प्रथम भी हैं और पश्चात् भी, अनुक्रम-सम्बन्ध से रहित शाश्वत भाव हैं । इनका प्राथम्य और पाश्चात्य भाव नहीं निकाला जा सकता । यह ध्रुव अंश की चर्चा है। परिणमन की दृष्टि से जगत् परिवर्तनशील है । परिवर्तन स्वाभाविक भी होता है और वैभाविक भी। स्वाभाविक परिवर्तन सब पदार्थों में प्रतिक्षण होता है । वैभाविक परिवर्तन कर्मबद्ध जीव और पुद्गल-स्कन्धों में ही होता है । यही है हमारा दृश्य जगत | जैन और बौद्ध दर्शन सृष्टिवादी नहीं हैं । वे परिवर्तनवादी हैं । जैन दृष्टि के अनुसार दृश्य विश्व का परिवर्तन जीव और पुद्गल के संयोग से होता है । परिवर्तन स्वाभाविक और प्रायोगिक दोनों प्रकार का होता है । स्वभाविक परिवर्तन सूक्ष्म होता है, इसलिए वह दृष्टिगम्य नहीं होता । प्रायोगिक परिवर्तन स्थूल होता है, इसलिए वह दृष्टिगम्य होता है । यही सृष्टि या दृश्य जगत् है । वह जीव और पुद्गल की सांयोगिक अवस्थाओं के बिना नहीं हो जाता । वैभाविक पर्याय की आधारभूत शक्ति दो प्रकार की होती है— ओघ और समुचित । 'घास में घी है' - यह ओघ शक्ति है । 'दूध में घी है' – यह समुचित शक्ति है । ओघशक्ति कार्य की नियामक है— कारण के अनुरूप कार्य पैदा होगा, अन्यथा नहीं । समुचित शक्ति कार्य की उत्पादक है । कारण की समग्रता बनती है और कार्य उत्पन्न हो जाता है । जैन- दृष्टि के अनुसार विश्व एक शिल्प- गृह है । उसकी व्यवस्था स्वयं उसी में समाविष्ट नियमों के द्वारा होती है । नियम वह पद्धति है जो चेतन और अचेतन पुद्गल के विविध जातीय संयोग से स्वयं प्रकट होती है. i परिवर्तन और विकास जीव और अजीव (धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, आकाश, काल और पुद्गल) की समष्टि विश्व है । जीव और पुद्गल के संयोग से जो विविधता पैदा होती है, उसका नाम है— सृष्टि | जीव और पुद्गल में दो प्रकार की अवस्थाएँ मिलती हैं - स्वभाव और विभाव या विकार । परिवर्तन का निमित्त काल बनता है । परिवर्तन का उपादान स्वयं द्रव्य होता है । धर्म, अधर्म और आकाश में स्वभाव परिवर्तन होता है। जीव और पुद्गल में
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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