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जैन दर्शन और संस्कृति कहा जाता है) का प्राणी के शरीर पर भी अनुकूल एवं प्रतिकूल परिणाम होता है। विचारों की दृढ़ता से विचित्र काम करने का सिद्धान्त इन्हीं का उपजीवी है।
यह समूचा दृश्य संसार पौद्गलिक ही है। जीव की समस्त वैभाविक अवस्थाएँ पुद्गल-निमित्तक होती हैं। तात्पर्य-दृष्टि से देखा जाए तो यह जगत् जीव और परमाणुओं के विभिन्न संयोगों का प्रतिबिम्ब (परिणाम) है। जैन सूत्रों में परमाणु और जीव-परमाणु संयोगकृत दशाओं का प्रचुर वर्णन है। भगवती, प्रज्ञापना और स्थानांग आदि इसके आकर-ग्रन्थ हैं। ‘परमाणु-पटिंत्रिंशिका' आदि परमाणु-विषयक स्वतन्त्र ग्रन्थों का निर्माण जैन-तत्त्वज्ञों की परमाणु-विषयक स्वतन्त्र अन्वेषणा का मूर्त रूप है। आज के विज्ञान की अन्वेषणाओं के साथ तुलनीय विचित्र वर्णन इनमें भरे पड़े हैं। वैज्ञानिक जगत् के लिए ये अन्वेषणीय हैं। एक द्रव्य : अनेक द्रव्य
समानजातीय द्रव्यों की दृष्टि से सब द्रव्यों की स्थिति एक नहीं है। छह द्रव्यों में धर्म, अधर्म और आकाश-ये तीन द्रव्य एक द्रव्य हैं—व्यक्ति रूप से एक हैं। इनके समानजातीय द्रव्य नहीं हैं। एक द्रव्य द्रव्य व्यापक होते हैं। धर्म-अधर्म समूचे लोक में व्याप्त हैं। आकाश लोक अलोक दोनों में व्याप्त है। काल, पुद्गल और जीव-ये तीन द्रव्य अनेक द्रव्य हैं—व्यक्ति रूप से अनन्त
पुद्गल द्रव्य संख्या की दृष्टि से सांख्य दर्शन में मान्य प्रकृति की तरह एक या व्यापक नहीं किन्तु अनन्त हैं, अनन्त परमाणु और अनन्त स्कन्ध हैं। जीवात्मा भी एक और व्यापक नहीं, अनन्त हैं। काल के भी समय अनन्त हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-दर्शन में द्रव्यों की संख्या के दो ही विकल्प हैं—एक या अनन्त । सादृश्य-वैसदृश्य
विशेष गुण की अपेक्षा से पाँचों द्रव्य-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव विसदृश हैं। सामान्य गुण की अपेक्षा से वे सदृश भी हैं। व्यापक गुण की अपेक्षा से धर्म, अधर्म, आकाश सदृश हैं। अमूर्तत्व की अपेक्षा से धर्म, अधर्म, आकाश और जीव सदृश हैं। अचैतन्य की अपेक्षा से धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल सदृश हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व और अगुरुलघुत्व की अपेक्षा से सभी द्रव्य सदृश हैं।