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________________ अब निहारें परमाणु-जगत् का ताण्डव-नृत्य आतप __ यह नष्णाप्रकाशभका हाप-किरण यह उष्ण प्रकाश का ताप-किरण है। जैसे—सूर्य का प्रकाश । अग्नि ताप से भिन्न है। उद्योत यह शीत प्रकाश का ताप-किरण है। जैसे-चन्द्र का प्रकाश। प्रतिबिम्ब-प्रक्रिया और उसका दर्शन पौद्गलिक वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं—सूक्ष्म और स्थूल। इन्द्रिय-गोचर होने वाली सभी वस्तुएं स्थूल होती हैं। स्थूल वस्तुएं चयापचय-धर्मक (घट-बढ़ जाने वाली) होती हैं। इनमें से रश्मियाँ निकलती हैं—वस्तु आकार के अनुरूप छाया-पुद्गल निकलते हैं और वे भास्वर (चमकीले) या अभास्वर वस्तुओं से प्रतिबिम्बित हो जाते हैं। अभास्वर वस्तु में पड़ने वाली छाया श्याम या काली होती है, अर्थात् उनका प्रतिबिम्ब चक्षु द्वारा गाह्य नहीं होता। भास्वर वस्तुओं में पड़ने वाली छाया वस्तु के वर्णानुरूप होती है। आदर्श या शीशे (कांच) में जो शरीर के अवयवों के प्रतिबिम्ब संक्रांत होते हैं वे प्रकाश के द्वारा दृष्टिगत होते हैं इसलिए आदर्श-द्रष्टा (व्यक्ति) आदर्श में न आदर्श देखता है, न अपना शरीर किन्तु अपने शरीर का प्रतिबिम्ब देखता है। प्राणी-जगत के प्रति पुद्गल का उपकार आहार (भोजन) शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन—जीव की ये -छह, प्रमुख क्रियाएँ हैं। इन्हीं के द्वारा प्राणी की चेतना का स्थूल बोध होता है। प्राणी का आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और भाषा–ये सब पौद्गलिक मानसिक चिन्तन भी पुद्गल-सहायापेक्ष है। चिन्तक चिन्तन के पूर्व क्षण में मनोवर्गणा के स्कन्धों को ग्रहण करता है। उसके चिन्तन के अनुकूल आकृतियाँ बन जाती हैं। एक चिन्तन से दूसरे चिन्तन में संक्रान्त होते समय पहली-पहली आकृतियाँ बाहर निकलती रहती हैं और नयी-नयी आकृतियाँ बन जाती हैं। वे मुक्त आकृतियाँ आकाश-मण्डल में फैल जाती हैं और कई थोड़े काल बाद परिवर्तित हो जाती हैं और कई असंख्यात काल तक परिवर्तित नहीं भी होतीं। इन मनोवर्गणा के स्कन्धों (विज्ञान के क्षेत्र में इन्हें Mindons
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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