SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अब निहारें परमाणु-जगत् का ताण्डव नृत्य बंध के दो प्रकार हैं१. वैससिक स्वभाव-जन्य बन्ध। २. प्रायोगिक प्रयोग-जन्य बन्ध । वैस्रसिक बन्ध सादि और अनादि-दोनों प्रकार का होता है। धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का बन्ध अनादि है। सादि बन्ध केवल पुद्गलों का होता है, व्यणुक आदि स्कन्ध बनते हैं, वह सादि बन्ध है। उसकी प्रक्रिया यह है : स्कन्ध केवल परमाणुओं के संयोग से नहीं बनता। स्निग्ध और रूक्ष गुण वाले परमाणुओं का परस्पर एकत्व होता है तब स्कन्ध बनता है अर्थात् स्कन्ध की उत्पत्ति का हेतु परमाणुओं का स्निग्धत्व और रूक्षत्व है।' विशेष नियम यह हैं : १. जघन्य अंश वाले स्निग्ध और रूक्ष परमाणु मिलकर स्कन्ध नहीं बना सकते। स्निग्धत्व और रूक्षत्व और वैज्ञानिक परिभाशा में पॉजिटिव और निगेटिव विद्युत कहा जा सकता है। 'तत्त्वार्थसूत्र' के पाँचवें अध्याय, सूत्र क्रमांक ३३ में कहा गया है- "स्निग्ध-रूक्षत्वादः" अर्थात् स्निग्धत्व और रूक्षत्व गुणों के कारण अणु एक सूत्र में बंधा रहता है। पूज्यपाद स्वामी ने 'स्वार्थसिद्धि' टीका में एक स्थान पर लिखा है-"स्निग्धरूक्षगुणनिमित्तो विद्युत' अर्थात् बादलों में स्निग्ध और रूक्ष गुणों के कारण विद्युत की उत्पत्ति होती है, इससे स्पष्ट हो जाता है कि स्निग्ध का अर्थ चिकना और रूक्ष का अर्थ खुरदरा नहीं है। ये दोनों शब्द वास्तव में विशेष (तकनीकी) अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं। जिस तरह एक अनपढ़ मोटर-चालक बैटरी के एक तार को ठंडा और दूसरे को गरम कहता है (यद्यपि उनमें से कोई तार न ठंडा और न गरम) और जिन्हें विज्ञान की भाषा में 'पॉजिटिव' और "नेगेटिव' कहा जाता है। ठीक . उसी तरह जैन धर्म में स्निग्ध और रूक्ष शब्दों का प्रयोग किया गया है। डॉ. बी.एन. सील ने केम्ब्रिज से प्रकाशित पुस्तक "पॉजिटिव साइन्सेज ऑफ एनशियेंट हिन्दूज' में स्पष्ट लिखा है कि जैनाचार्यों को यह बात मालूम थी कि भिन्न-भिन्न वस्तुओं को आपस में रगड़ने से बिजली उत्पन्न की जा सकती है। इस तरह कोई संदेह नहीं रह जाता कि स्निग्ध का अर्थ पॉजिटिव और रूक्ष का अर्थ निगेटिव विद्युत है। सर अर्नेस्ट रदरफोर्ड ने अपने प्रयोगों द्वारा यह असंदिग्ध कर दिया हैं कि प्रत्येक एटम में, चाहे वह किसी भी वस्तु का क्यों न हो, पॉजिटिव और निगेटिव बिजली के कण भिन्न-भिन्न संख्या में विद्यमान रहते हैं। लोहा, चाँदी, सोना आदि द्रव्यों के अणुओं में यही रचना पायी जाती है और कोई अन्तर नहीं है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy