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जैन दर्शन और संस्कृति ५. संस्थान (Configurations) ६. भेद (Fission) ७. तम (Darkness)
८. छाया (Shadow) ९. आतप (Sunlight) १०. उद्योत (Moonlight) ये पौद्गलिक कार्य तीन प्रकार के होते हैं१. प्रायोगिक-जीव के प्रयोग से होने वाले। २. वस्त्रसिक-जीव के स्वभाव से होने वाले।
३. मिश्र—जीव के प्रयल और स्वभाव-दोनों के संयोग से होने वाले। शब्द
जैन दार्शनिकों ने 'शब्द' को केवल पौद्गलिक कहकर ही विश्राम नहीं लिया, किन्तु उसकी उत्पत्ति, गीत आदि विभिन्न पहलुओं पर पूरा प्रकाश डाला है। तार का सम्बन्ध न होते हुए भी सुघोषा घण्टा का शब्द असंख्यात योजना की दूरी पर रही हुई घण्टाओं में प्रतिध्वनित होता है।
शब्द पुद्गल-स्कन्धों के संघात और भेद से उत्पन्न होता है। उसके भाषा-शब्द (अक्षर-सहित और अक्षर-रहित), नो-भाषा शब्द (आतोद्य शब्द और नो-आतोद्य शब्द) आदि अनेक भेद हैं।
वक्ता बोलने से पूर्व भाषा-परमाणुओं को ग्रहण करता है, भाषा के रूप में उनका परिणमन करता है और अन्त में उनका उत्सर्जन करता है। उत्सर्जन के द्वारा निकले हुए भाषा वर्गणा के पुद्गल आकाश में फैलते हैं। वक्ता का प्रयत्न अगर मंद है तो वे पुद्गल अभिन्न रहकर 'जल-तरंग-न्याय' से आकाश में फैलकर शक्तिहीन हो जाते हैं। यदि वक्ता का प्रयत्न तीव्र होता है तो वे भिन्न होकर स्कन्धों को ग्रहण करते-करते सुदूर तक चले जाते हैं।
हम जो सुनते हैं वह वक्ता का मूल शब्द नहीं सुन पाते। वक्ता का शब्द श्रेणियों-आकाश-प्रदेश की पंक्तियों में फैलता है। ये श्रेणियाँ वक्ता के पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, ऊँची-नीची-छहों दिशाओं में हैं। हम शब्द की सम-श्रेणी में होते हैं तो मिश्र शब्द सुनते हैं अर्थात् वक्ता द्वारा उच्चारित शब्द-द्रव्यों और उनके द्वारा वासित शब्द-द्रव्यों को सुनते हैं। यदि हम विश्रेणी (विदिशा) में होते हैं तो केवल वासित शब्द-द्रव्यों को ही सुन पाते हैं।
बन्ध
__ अवयवों का परस्पर अवयव और अवयवी के रूप में परिणमन होता है, उसे बन्ध कहा जाता है। संयोग में केवल अन्तर-रहित अवस्थान होता है किन्तु बन्ध में एकत्व होता है।