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जैन दर्शन और संस्कृति का प्रतिपक्षी है, जबकि डिमोक्रिटस के मतानुसार आत्मा सूक्ष्म परमाणुओं का ही विकार है।
कई भारतीय विद्वान परमाणुवाद को कणाद ऋषि (वैशेषिक दर्शन के प्रणेता) की उपज मानते हैं किन्तु तटस्थ दृष्टि से देखा जाए तो वैशेषिकों का परमाणुवाद जैन-परमाणुवाद से पहले का नहीं है और न जैनों की तरह वैशेषिकों ने उसके विभिन्न पहलुओं पर वैज्ञानिक प्रकाश ही डाला है। विद्वानों ने माना है कि भारतवर्ष में परमाणुवाद के सिद्धान्त को जन्म देने का श्रेय जैन-दर्शन को मिलना चाहिए। उपनिषद् में अणु शब्द का प्रयोग हुआ है, जैसे—'अणोरणीयान् महतो महीयान्', किन्तु परमाणुवाद नाम की कोई वस्तु उनमें नहीं पायी जाती। वैशेषिकों का परमाणुवाद शायद इतना पुराना नहीं है।
ई.पू. के जैन सूत्रों एवं उत्तरवर्ती साहित्य में परमाणु के स्वरूप और कार्य का सूक्ष्मतम अन्वेषण परमाणुवाद के विद्यार्थी के लिए अत्यन्त उपयोगी है। श्वेताम्बर साहित्य में. भगवती सूत्र, स्थानांग सूत्र, पण्णवणा सूत्र, तत्त्वार्थ सूत्र (स्वोपज्ञ भाष्य) आदि तथा दिगम्बर साहित्य में षट्खण्डागम (धवला टीका), गोम्मटसार, बृहद् द्रव्य-संग्रह, पंचास्तिकायसार, तत्त्वार्थ-राजवार्तिक आदि में परमाणुवाद का विस्तृत विवेचन है। परमाणु का स्वरूप
जैन-परिभाषा के अनुसार अछेद्य, अभेद्य, अग्राह्य, अदाह्य और निर्विभागी पुद्गल को परमाणु कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान के विद्यार्थी को परमाणु के उपलक्षणों में संदेह हो सकता है, कारण कि विज्ञान के सूक्ष्म यन्त्रों में परमाणु की अविभाज्यता सुरक्षित नहीं है।
परमाणु अगर अविभाज्य न हो तो उसे परम + अणु नहीं कहा जा सकता। विज्ञान-सम्मत परमाणु टूटता है, उसे भी हम अस्वीकार नहीं करते। इस समस्या के बीच हमें जैन आगम अनुयोगद्वार में वर्णित परमाणु-द्विविधता का सहज स्मरण हो आता है
१. नैश्चयिक (या सूक्ष्मतम) परमाणु । २. व्यावहारिक परमाणु ।
सूक्ष्मतम परमाणु का स्वरूप वही है, जो कुछ ऊपर की पंक्तियों में बताया गया है। व्यावहारिक परमाणु अनन्त सूक्ष्मतम परमाणुओं के समुदय से बनता है। वस्तुवृत्या वह स्वयं परमाणु-पिंड है, फिर भी साधारण दृष्टि से ग्राह्य नहीं होता और साधारण अस्त्र-शस्त्र से तोड़ा नहीं जा सकता। उसकी परिणति सूक्ष्म होती है,