________________
-३४
जैन दर्शन और संस्कृति काल
श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार काल औपचारिक द्रव्य है। वस्तुवृत्त्या वह जीव और जीव का पर्याय है। जहाँ इसके जीव-अजीव के पर्याय होने का उल्लेख है, बहाँ इसे द्रव्य भी कहा गया है। ये दोनों कथन विरोधी नहीं किन्तु सापेक्ष हैं। निश्चय-दृष्टि से काल जीव-अजीव का पर्याय है और व्यवहार दृष्टि से यह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है—'उपकारकं द्रव्यम्'। वर्तना, परिणमन, क्रिया, परत्व, अपरत्व आदि काल के उपकार हैं। इन्हीं के कारण यह द्रव्य माना जाता है। पदार्थों की स्थिति आदि के लिए जिसका व्यवहार होता है, वह आवलिका आदिरूप काल जीव-अजीव से भिन्न नहीं है, उन्हीं का पर्याय है।
दिगम्बर आचार्य काल को अणुरूप मानते हैं। वैदिक दर्शनों में सभी काल के सम्बन्ध में नैश्चयिक और व्यावहारिक दोनों पक्ष मिलते हैं। नैयायिक और वैशेषिक काल को सर्वव्यापी और स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। योग, सांख्य आदि दर्शन काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते।। विज्ञान की दृष्टि से आकाश और काल
आइन्स्टीन के अनुसार आकाश और काल कोई स्वतन्त्र तथ्य नहीं है। वे द्रव्य या पदार्थ के धर्म-मात्र हैं।
किसी भी वस्तु का अस्तित्व पहले तीन आयामों (dimensions) लम्बाई, चौड़ाई और गहराई या ऊँचाई में माना जाता था। आइन्स्टीन ने वस्तु का अस्तित्व चार आयामों में माना-तीन आयाम आकाश के और एक काल का।
वस्तु का रेखागणित (ऊँचाई, लम्बाई, चौड़ाई) में प्रसार आकाश है और उसका क्रमानुगत प्रसार काल है। काल और आकाश दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं।
आइन्स्टीन के “आपेक्षिकता के सिद्धान्त” के अनुसार निरपेक्ष आकाश और निरपेक्ष काल का कोई अस्तित्व नहीं है। उनके अभिमतानुसार जिस प्रकारं रंग, आकार तथा परिमाण (size) हमारी चेतना से उत्पन्न विचार हैं, उसी प्रकार आकाश और काल भी हमारी आंतरिक कल्पना के ही रूप हैं। जिन वस्तुओं को हम आकाश में देखते हैं, उनके 'क्रम' (order) के अतिरिक्त आकाश की कोई वस्तुनिष्ठ वास्तविकता (objective reality) नहीं है। उसी प्रकार जिन घटनाओं के द्वारा हम काल को मापते हैं, उन घटनाओं के क्रम' (sequence) के अतिरिक्त काल का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है।