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आओ चलें अमूर्त विश्व की यात्रा पर
जिस प्रकार गति-स्थिति के निमित्त के रूप में धर्म और अधर्म-द्रव्यों की उपधारणा (पोस्च्यूलेशन) आवश्यक है, उसी प्रकार लोक-अलोक के विभाजन में भी इनको माने बिना तर्वसम्मत समाधान नहीं मिलता। जैसे कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है : “लोक सीमित है और उससे आगे अलोक-आकाश असीम है इसलिए पदार्थों की और प्राणियों की व्यवस्थित रूपरेखा को बनाए रखने के लिए आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई तत्त्व होना चाहिए—यदि गति और अगति का माध्यम आकाश ही है, तो फिर अलोक आकाश का अस्तित्व ही नहीं रहेगा और लोक व्यवस्था का भी लोप हो जाएगा।” लोक और अलोक का विभाजन एक शाश्वत तथ्य है, अत: इसके विभाजक तत्त्व भी शाश्वत होने चाहिए। कृत्रिम वस्तु से शाश्वत आकाश का विभाजन नहीं हो सकता, अत: ऊपर बताये गए छह द्रव्यों में से ही विभाजक तत्त्व हो सकते हैं। यदि हम आकाश को ही विभाजक मानें, तो यह उपयुक्त नहीं होगा, क्योंकि आकाश स्वयं विभज्यमान है, अत: वह विभाजन का हेतु नहीं बन सकता। यदि काल को विभाजक तत्त्व माना जाए तो तर्व-संगत नहीं होता, क्योंकि काल वस्तुत: (निश्चय दृष्टि से) तो जीव और अजीव का पर्याय-मात्र है। यह केवल औपचारिक द्रव्य है। व्यावहारिक काल लोक के सीमित क्षेत्र में ही विद्यमान है, जबकि नैश्चयिक काल लोक और अलोक दोनों में है। जीव और पुद्गल गतिशील द्रव्य हैं, अत: ये विभाजक तत्त्व के योग्य नहीं हैं। इस प्रकार छह द्रव्यों में से केवल दो द्रव्य शेष रह जाते हैं, जो लोक-अलोक का विभाजन कर सकें। अत: धर्मास्तिकाय और अधर्मातिस्काय-ये दो द्रव्य ही आकाश का विभाजन करते हैं। जहाँ-जहाँ ये दो विद्यमान हैं, वहाँ-वहाँ जीव और पुद्गल गति करते हैं और स्थिर रहते हैं। जहाँ इनका अस्तित्व नहीं है, वहाँ किसी भी द्रव्य की गति और स्थिति सम्भव नहीं है। इस प्रकार लोकाकाश और अलोकाकाश का विभाजन हो जाता है। इसलिए कहा गया है-“धर्म और धर्म को लोक तथा अलोक का परिच्छेदक मानना युक्तियुक्त है। यदि ऐसा न हो, तो उनके विभाग का आधार ही क्या बने ?”
इस प्रकार धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय गति-स्थिति निमित्तिक और लोक-अलोक विभाजक द्रव्यों के रूप में स्वीकार किए गए हैं। उक्त समग्र विवेचन को संक्षिप्त में इस प्रकार कहा जा सकता है : धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय-इन छह द्रव्यों से बना हुआ लोक परिमित है। इस लोक से परे आकाश-द्रव्य का अनन्त समुद्र है, जिसमें गति-स्थिति-माध्यमों के अभाव के कारण कोई भी जड़ पदार्थ या जीव गति करने में या ठहरने में समर्थ नहीं है ।