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जैन दर्शन और संस्कृति कार्य-कारणवाद के अनुसार प्रत्येक कार्य के लिए दो प्रकार के कारण आवश्यक हैं—उपादान और निमित्त । उपादान कारण वह है, जो स्वयं कार्य रूप में परिणत हो जाए। निमित्त कारण वह है, जो कार्य के निष्पन्न होने में सहायक हो । यदि किसी पदार्थ की गति होती है, तो उसमें उपादान कारण तो वह पदार्थ स्वयं है किन्तु निमित्त कारण क्या है? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए हमें कोई ऐसे पदार्थ की आवश्कयता हो जाती है, जिसकी सहायता पदार्थ की गति में अनिवार्य हो। यदि हवा आदि को निमित्त कारण माना जाये, तो यह एक नया प्रश्न उत्पन्न हो जाता है कि उनकी (हवा आदि की) गति में कौन-सा निमित्त कारण है? यदि इसी प्रकार किसी अन्य द्रव्य को निमित्त माना जाए, तो ऐसे कारणों की परम्परा चलती ही जाती है और “अनवस्था दोष” (regresus ad infinitum) की उत्पत्ति हो जाती है इसलिए ऐसे पदार्थ की आवश्यकता हो जाती है, जो स्वयं गतिमान न हो।
यदि पृथ्वी, जल आदि स्थिर द्रव्यों को निमित्त कारण के रूप में माना जाता है, तो भी यह युक्त नहीं होता है, क्योंकि ये पदार्थ समस्त लोकव्यापी नहीं हैं। यह आवश्यक है कि गति-माध्यम के रूप में जिस पदार्थ को माना जाता है, वह सर्वव्यापी हो। इस प्रकार किसी ऐसे द्रव्य की कल्पना करनी पड़ती है, जो
१. स्वयं गतिशून्य हो, २. समस्त लोक में व्याप्त हो, ३. दूसरे पदार्थों की गति में सहायक हो सके।
ऐसा द्रव्य धर्मास्तिकाय ही है। यहाँ यदि धर्मास्तिकाय का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार न करके आकाश-द्रव्य को ही इन लक्षणों से युक्त्त माना जाए, तो भी एक बड़ी कठिनाई उपस्थित होती है। क्योंकि यदि आकाश-द्रव्य ही पदार्थों की गति में सहायक, हो, तो आकाश असीम और अनन्त होने के कारण गतिमान पदार्थों की गति भी अनन्त आकाश में शक्य हो जाती है उनकी गति अबाधित हो जाती है। परिणामस्वरूप अनन्त आत्माएँ और अनन्त जड़ पदार्थ अनन्त आकाश में निरंकुशतया गति करने लग जाते हैं और उनका परस्पर संयोग होना और व्यवस्थित, सान्त और निवासित विश्व के रूप में लोकाकाश का होना, असम्भव हो जाता है किन्तु इस विश्व का रूप व्यवस्थित है, विश्व एक क्रमबद्ध संसार (Cosmos) के रूप में दिखाई देता है, न कि अव्यवस्थित ढेर (Chaos) की तरह। ये तथ्य हमें इस निर्णय पर ले जाते हैं कि विश्व की व्यवस्था का आधार किसी स्वतन्त्र नियम पर है, परिणामस्वरूप हमें यह निर्णय करना पड़ता है कि पदार्थों की गति-अगति में सहायक आकाश नहीं, अपितु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक स्वतन्त्र द्रव्य हैं।