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________________ २४ जैन दर्शन और संस्कृति है। अगुरुलघुत्व गुण के कारण द्रव्य में अनन्त धर्म एकीभूत होकर रहते हैं—बिखरं कर अलग-अलग नहीं हो जाते। इसी गुण के कारण प्रत्येक द्रव्य के ‘स्वरूप' की अविचलता होती है। __ इस प्रकार से छह “सामान्य गण' प्रत्येक द्रव्य में होते हैं। विशेष गण प्रत्येक द्रव्य में अपने-अपने होते हैं, जिनकी चर्चा स्वतंत्र रूप से न करते हुए द्रव्यों के वर्णनान्तर्गत करना उपयुक्त होगा। द्रव्य शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है- 'अद्रुवत्, द्रवति, द्रोष्यति, तांस्तान् पर्यायान् इति द्रव्यम्' जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हुआ, हो रहा है और होगा, वह द्रव्य है। इसका फलित अर्थ यह है-अवस्थाओं का उत्पाद (उत्पत्ति) और व्यय (विनाश) होते रहने पर भी जो ध्रुव (स्थायी) रहता है, वही द्रव्य है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि अवस्थाएँ उसी में उत्पन्न एवं नष्ट होती हैं जो ध्रुव रहता है, क्योंकि धौव्य (स्थावित्व) के बिना पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाओं का सम्बन्ध नहीं रह सकता। द्रव्य की ये दो परिभाषाएँ की जा सकती हैं १. पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाओं में जो व्याप्त रहता है, वह द्रव्य है। २. जो सत् (real) है, वह द्रव्य है। उत्पाद, व्यय और धौव्य—इस त्रयात्मक स्थिति का नाम सत् है। द्रव्य में परिणमन होता है-उत्पाद और व्यय होता है, फिर भी उसकी स्वरूप-हानि नहीं होती। द्रव्य के प्रत्येक अंश में प्रति समय जो परिवर्तन होता है, वह सर्वथा विलक्षण नहीं होता। परिवर्तन में कुछ समानता मिलती है और कुछ असमानता। पूर्व-परिणाम और उत्तर-परिणाम में समानता है, वही द्रव्य है। उस रूप में द्रव्य न उत्पन्न होता है और न नष्ट । जैसे माला के प्रत्येक मोती में धागा अनुस्यूत रहता है, वैसे ही द्रव्य वस्तु की प्रत्येक अवस्था में प्रभावित रहता है। पूर्ववती और उत्तरवर्ती परिणमन में जो. असमानता होती है, वह पर्याय है। उस रूप में द्रव्य उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। इस प्रकार द्रव्य प्रति समय उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और स्थिर भी रहता है। द्रव्य रूप से वस्तु स्थिर रहती है और पर्याय रूप से उत्पन्न और नष्ट होती है। इससे यह फलित होता है कि कोई भी वस्तु न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य किन्तु परिणामी नित्य है। बौद्ध दर्शन सत् (द्रव्य) को एकान्त अनित्य (नरन्वय क्षणिक-केवल उत्पाद-विनाश-स्वभाव) मानता है, जबकि वेदान्त दर्शन सत्पदार्थ-ब्रह्म को एकांत नित्य । पहला परिवर्तनवाद है तो दूसरा नित्यसत्तावाद। जैन-दर्शन इन दोनों का समन्वय कर परिमाणी नित्यवाद स्थापित करता है, जिसका आशय यह है कि
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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