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आओ चलें अमूर्त विश्व की यात्रा पर
२३ पुद्गलास्तिकाय विभागी द्रव्य है। उसका विभाजन या खण्डन किया जा सकता है इसलिए यह स्पष्ट रूप से सावयवी है। पुद्गल का अविभाज्य खण्ड परमाणु है, जो स्वयं यद्यपि निरंश (निरवयवी) होता है, अर्थात् अप्रदेशी होता है, फिर भी उसमें संयोजन-वियोजन स्वभाव होता है; अत: इनके स्कन्ध (परमाणुओं के एकीभूत होने से बनने वाले पिण्ड) बनते हैं, जिनका पुन: विघटन होता है। कोई भी स्कन्ध शाश्वत नहीं होता। इसी दृष्टि से पुद्गल द्रव्य विभागी है।
द्रव्य
भूत और भविष्य का संकलन करने वाला (जोड़ने वाला) वर्तमान है। वर्तमान के बिना भूत और भविष्य का कोई मूल्य नहीं रहता। इसका अर्थ यह है कि हम जिस वस्तु का जब कभी एक बार अस्तित्व स्वीकार करते हैं तब हमें यह मानना पड़ता है कि उससे वस्तु पहले भी थी और बाद में भी रहेगी। वह एक ही अवस्था में रहती आयी है या रहेगी-ऐसा नहीं होता, किन्तु उसका अस्तित्व कभी नहीं मिटता, यह निश्चित है। भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में परिवर्तित होते हुए भी उसके मौलिक रूप और शक्ति का नाश नहीं होता।
दार्शनिक परिभाषा में द्रव्य वही है जिसमें गण और पर्याय होते हैं। प्रत्येक द्रव्य में दो प्रकार के धर्म रहते हैं-एक तो सहभावी धर्म (गुण), जो द्रव्य में नित्य रूप से रहता है, दूसरा क्रमभावी धर्म (पर्याय), जो परिवर्तनशील होता है। गुण भी दो प्रकार के हैं--सामान्य गुण और विशेष गुण। सामान्य गुण वे हैं, जो किसी भी द्रव्य में निश्चित रूप से होते हैं। जैसे अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशबत्त्व और अगुरुलघुत्व। ये छह गुण सामान्य गुण हैं, अत: प्रत्येक द्रव्य में ये गुण होते ही हैं। अस्तित्व गुण उसे कहते हैं, जिस गुण के कारण द्रव्य का कभी विनाश न हो अर्थात् द्रव्य सदा विद्यमान रहे--कभी नष्ट न हो। वस्तुत्व का अर्थ होता है-द्रव्य का सदा किसी-न-किसी प्रकार की अर्थक्रिया करते रहतना। प्रत्येक द्रव्य अन्य पदार्थ के साथ अनेक प्रकार के संबंधों से जुड़ता है और अन्य पदार्थों के द्वारा प्रभावित भी होता रहता है किन्तु इन क्रिया-प्रतिक्रियाओं में भी द्रव्य 'वस्तुत्व' गुण के कारण अपनेपन को नहीं छोड़ता। 'द्रव्यत्व' गुण वह है, जिसके कारण द्रव्य गुण और पर्यायों को धारण करता है। प्रतिक्षण प्रत्येक द्रव्य की अवस्था बदलती रहती है। इन अवस्थाओं के परिवर्तन से द्रव्य में 'उत्पत्ति और विनाश' का क्रम चलता रहता है। 'प्रमेयत्व' गुण के कारण द्रव्य ज्ञान द्वारा जाना जा सकता है। जो प्रमाण (यथार्थ ज्ञान) का विषय बन सकता है, वह 'प्रमेय' है। प्रदेशवंत्त्व गुण के कारण द्रव्य के प्रदेशों का माप होता है। प्रत्येक द्रव्य-का विस्तार उसके प्रदेशवान होने के कारण होता