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विश्व का वर्गीकरण
जैन दर्शन और संस्कृति
जैन दर्शन में विश्व या ब्रह्माण्ड के लिए 'लोक' शब्द प्रयुक्त हुआ है 1 लोक का व्युत्पत्तिजनक अर्थ है "यो लोक्यते स लोकः । " - जो देखा जाता है, वह लोक है । लोक की व्याख्यात्मक परिभाषा करते हुए कहा गया है- “ षड्द्रव्यात्मको लोकः । ” – जो षड्-द्रव्यात्मक है, वह लोक है । ये छह द्रव्य (substances) हैं
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१. धर्मास्तिकाय: गति-सहायक द्रव्य
२. अधर्मास्तिकाय: स्थिति सहायक द्रव्य
३. आकाशास्तिकाय आश्रय देने वाला द्रव्य
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४. काल : समय
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५. पुद्गलास्तिकाय: भौतिक द्रव्य ( Physical substance ) - जड़ पदार्थ (matter) और ऊर्जा ( energy) ६. जीवास्तिकाय : आत्मा - चैतन्यशील द्रव्य (Psychical substance) इन छह द्रव्यों में से काल को छोड़कर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय कहे गए हैं । अस्तिकाय का तात्पर्य है कि ये द्रव्य सप्रदेशी यानी सावयवी हैं । (किसी भी द्रव्य का निरंश अंश या अविभाज्य विभाग 'प्रदेश' कहलाता है ।) काल द्रव्य अप्रदेशी है, अतः उसे अस्तिकाय नहीं कहा गया है । इस कारण से लोक की चर्चा के प्रसंग में कहीं-कहीं इसे 'पंचास्तिकायरूप' भी बताया गया है। संक्षेप में कहा जाय तो जिसे हम विश्व ( ब्रह्माण्ड या universe) की संज्ञा देते हैं, वह लोक है ।
अस्तिकाय
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अस्तिकाय का शाब्दिक अर्थ है - प्रदेश - समूह या अवयव समुदाय । ( अस्तिकाय: प्रदेशप्रचय: ) । प्रत्येक द्रव्य का सबसे छोटा परमाणु जितना भाग जो स्वयं अविभाज्य होता है और जो द्रव्य से संलग्न है, वह 'प्रदेश' कहलाता है। ‘अस्ति' शब्द 'प्रदेश' का वाचक और 'काय' शब्द 'समूह' का वाचक है 1
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय — ये चारों द्रव्य अखण्ड और अविभागी हैं, इनका विघटन नहीं हो सकता। ये अवयवी इस दृष्टि से कहलाते हैं कि इनके परमाणु-तुल्य खण्डों की कल्पना की जाए तो वे असंख्यात होते हैं अर्थात् ये असंख्यातप्रदेशी द्रव्य हैं इसलिए अस्तिकाय हैं ।