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जैन दर्शन और संस्कृति निराशा का स्वर नहीं है किन्तु भौतिकता के निर्बाध आक्रमण के सामने उनकी सामरिक व्यूह रचना है। यह उनका पलायन नहीं है, किन्तु इन्द्रियों के उच्छंखल निमंत्रण के सामने उन्मुक्त विद्रोह है।
श्रमण दार्शनिक गाता है—“जीवन की आशंसा (आकांक्षा) मत करो, मृत्यु की आशंसा मत करो। वह जीवन आशंसनीय नहीं है, जो भौतिकता से आक्रांत और ऐन्द्रियक उच्छंखलता से संत्रस्त है।"
“वह मृत्यु अभिलषणीय नहीं है, जो निराशा से अभिभूत (पराजित) और जीवन-निर्वाह की अक्षमता से संकुल है।” । ___ "तुम वैसा जीवन जियो, जिसमें चेतना का प्रतिबिम्ब और स्वतंत्रता की प्रतिध्वनि हो। तुम वैसी मृत्यु से मरो, जिसकी खिड़की से जीवन की सफलता झांक रही हो और जिसे चैतसिक प्रसन्नता आप्लावित कर रही हो।"
अभ्यास
१. दर्शन की परिभाषा के संबंध में मुख्य मतभेद क्या हैं? . २. विभिन्न भारतीय दर्शनों में बन्ध और मोक्ष के सम्बन्ध में मुख्य
धारणाओं में क्या समानता है? ३. क्या श्रद्धा और तर्क का समन्वय किया जा सकता है? कैसे? ४. क्या जैन दर्शन पलायनवादी है?
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