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________________ दर्शन है सत्यं शिवं सुन्दरं की त्रिवेणी मोक्ष जीवन की वह अवस्था है जहाँ सव बन्धन निर्बध हो जाते हैं। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक भौतिक और धार्मिक-इन सब बंधनों से मुक्ति, पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ है मोक्ष । निर्वाण जीवन की वह अवस्था है जहाँ दैहिक वाचिक और मानसिक सब दोष नि:शेष हो जाते हैं। जहाँ समग्र वासनाओं और क्लेशों की शांति से निरपेक्ष शान्ति प्राप्त होती है। अपूर्णता से पूर्णता की ओर जाने के लिए उठा हुआ पग निराशावादी नहीं हो सकता। द्वितीय महायुद्ध के मध्य मित्रराष्ट्रों की सेना पीछे हटती जा रही थी। दर्शक उसे निराश और पराजित मान रहे थे। रणविशेषज्ञ उसे अपनी रणनीति (strategy) बता रहे थे। विजय के क्षणों ने इसी बात की पुष्टि की कि वह उनकी रणनीति थी। __हमारा समूचा जीवन समरांगण है। हम जीवन-समर में आगे भी बढ़ते हैं. पीछे भी हटते हैं। पीछे हटना निराशा नहीं है, पलायन नहीं है, वह हमारी समर-नीति है। 'संसार असार है'- श्रमण दर्शन ने यह उद्घोषणा की है। यह क्रमश .... उपनिषदों से ही हुआ और यही परम्परा उपनिषदों के पूर्ण विकास के युग में आकर पुष्ट और जैन तथा बौद्ध दर्शन में जाकर प्रचण्ड हो उठी।" उपनिषदों में स्पष्ट किया गया है कि आत्म-तत्त्व को पहचाने बिना मोक्ष संभव नहीं है, इसलिए अहंकार को एकदम हटा देना परम आवश्यक है। अहंकार के कारण ही मनुष्य संसार रूपी गर्त में गिरता है। उपनिषदों का संदेश है कि मनुष्य को पाश्विक मनोवृत्ति से ,पृथक् रहना चाहिए। पाश्विक मनोवृत्ति के निरोध से सब कुछ साधा जा सकता है इसलिए आत्म-निग्रह आवश्यक है। कुत्सित इच्छाओं का अन्त करने से सब प्रकार की साधना सरल हो जाती है। इन सब तैयारियों से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग सरल हो जाता है। मोक्ष एक आनन्द-मय अवस्था है। जो जीव इस अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकते, उनके लिए कर्म-सिद्धान्त के अनुसार पुनर्जन्म का बंध. होता है। जो जीव अपने पुण्यकृत्यों द्वारा आत्म-तत्त्व पहचान लेता है वह उस ब्रह्मलोक या. सत्य लोक को प्राप्त कर लेता है, जहाँ से वापस नहीं आना पड़ता। उपनिषदों में उल्लेख है कि अपने पुण्यों द्वारा आत्म-तत्त्व को पहचान लेने वाले जीव देवयान या अर्चि-मार्ग द्वारा बह्मलोक को जाते हैं। इसके विपरीत साधारण पुण्य वाले जीव पितृयान या धूप-मार्ग द्वारा चंद्रलोक जाते हैं, वहाँ से पुण्य फल के क्षीण होने पर उन्हें वापस आना पड़ता है। मोक्ष प्राप्त कर लेने वाले जीवों को किसी भी मार्ग का अनुसरण नहीं करना पड़ता।"
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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