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________________ २४७ चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग प्राचीनता और नवीनता पुरानी और नयी पीढ़ी का संघर्ष बहुत पुराना है। पुराने व्यक्ति और पुरानी कृति को मान्यता प्राप्त होती है। नये व्यक्ति और नये कृति को मान्यता प्राप्त करनी होती है। मनुष्य स्वभाव से इतना उदार नहीं है कि वह सहज ही किसी को मान्यता दे दे। नयी पीढ़ी में मान्यता प्राप्त करने की छटपटाहट होती है और पुरानी पीढ़ी का अपना अहं होता है, अपना मानदण्ड होता है, इसलिए वह नयी पीढ़ी को नये मानदण्डों के आधार पर मान्यता देने में सकुचाती है। यह संघर्ष साहित्य, आयुर्वेद और धर्म सभी क्षेत्रों में रहा है। ____ महाकवि कालिदास को अपने काव्य और नाटक के प्रति पुराने विद्वानों द्वारा उपेक्षापूर्ण व्यवहार किये जाने पर यह कहने के लिए बाध्य होना पड़ा पुराणमित्येव न साधु सर्व, न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्। सन्त: परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते, मूढः परप्रत्ययनेयवृत्तिः ।। “पुराना होने मात्र से कोई काव्य प्रकृष्ट नहीं होता और नया होने मात्र से कोई काव्य निकृष्ट नहीं होता। साधुचेता पुरुष परीक्षा के बाद ही किसी काव्य को प्रकृष्ट या निकृष्ट बतलाते हैं और जो मूढ़ होता है, वह बिना सोचे-समझे पुराणता का गीत गाता रहता है।" __ आचार्य वाग्भट्ट ने अष्टांगहृदय का निर्माण किया। आयुर्वेद के धुरंधर आचार्यों ने उसे मान्य नहीं किया। वाग्भट्ट को भी पुरानी पीढ़ी के तिरस्कार का । पात्र बनना पड़ा। उसी मन:स्थिति में उन्होंने यह लिखा—“वायु की शांति के लिए तेल, पित्त की शांति के लिए घी और श्लेष्म की शांति के लिए मधु पथ्य है। यह बात चाहे ब्रह्मा कहें या ब्रह्मा का पुत्र, इसमें वक्ता का क्या अन्तर आएगा? ववत्ता के कारण द्रव्य की शक्ति में कोई अन्तर नहीं आता, इसलिए आप मात्सर्य को छोड़ मध्यस्थ दृष्टि का अवलंबन लें।" प्राचीनता और नवीनता के प्रश्न पर महाकवि कालिदास और वाग्भट्ट का चिन्तन बहुत महत्त्वपूर्ण है। किन्तु इस विषय में आचार्य सिद्धसेन की लेखनी ने जो चमत्कार दिखाया है, वह प्राचीन भारतीय साहित्य में दुर्लभ है। उनका चिन्तन है कि कोई व्यक्ति नया नहीं है और कोई पुराना नहीं है। जिसे हम पुराना मानते हैं, एक दिन वह भी नया था और जिसे हम नया मानते हैं, वह भी एक दिन पुराना हो जाएगा। आज जो जीवित है, वह मरने के बाद नयी पीढ़ी के लिए पुरानों की सूची में आ जाता है। पुराणता अवस्थित नहीं है, इसलिए पुरातन व्यक्ति की कही हुई बात पर भी विना परीक्षा किए कौन विश्वास करेगा?
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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