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________________ २४८ जैन दर्शन और संस्कृति आचार्य सिद्धसेन ने भगवान् महावीर की अभय की भावना को आत्मसात् कर लिया था। वे सत्य के प्रकाशन में सकुचाते नहीं थे। मुक्त-समीक्षा और प्राचीनता की युक्तिसंगत आलोचना के कारण उनका विरोध बढ़ रहा था। वे इस स्थिति से परिचित थे, किन्तु स्वतंत्रचेता व्यक्ति इस प्रकार की स्थिति से घबराता नहीं। उनका अभय स्वर इस भाषा में प्रस्फुटित हुआ___“पुराने पुरुषों ने जो व्यवस्था निश्चित की है, क्या वह चिन्तन करने पर उसी रूप में सिद्ध होगी? नहीं भी हो सकती है। उस स्थिति में मृत पुरखों की जमी हुई प्रतिष्ठा के कारण उस असिद्ध व्यवस्था का समर्थन करने के लिए मेरा जन्म नहीं हुआ है। इस व्यवहार से यदि मेरे विद्वेषी बढ़ते हैं, तो भले ही बढ़ें।" “व्यवस्थाएं या मर्यादाएं अनेक प्रकार की हैं और वे परस्पर विरोधी भी हैं। उनका शीघ्र ही निर्णय कैसे किया जा सकता है ? फिर भी 'यह मर्यादा है, यह नहीं है,' इस प्रकार का एकपक्षीय निर्णय करना पुरातन के प्रेम से जड़ बने हुए व्यक्ति के लिए ही उचित हो सकता है, किसी परीक्षक के लिए नहीं। ___ “पुरातन प्रेम के कारण आलसी बना हुआ व्यक्ति जैसे-जैसे यथार्थ का निश्चय नहीं कर पाता, वैसे-वैसे वह निश्चय किए हुए व्यक्ति की भांति प्रसन्न होता है। वह कहता है, हमारे पूर्वज ज्ञानी थे। उन्होंने जो कुछ कहा, वह मिथ्या कैसे हो सकता है? मैं मन्दगति हूँ, उसका आशय नहीं समझ सकता, यह मेरी अल्पता है। किन्तु गुरुजनों की कही हुई बात अन्यथा नहीं हो सकती। ऐसा निश्चय करने वाला व्यक्ति आत्म-नाश की ओर दौड़ता है।" ___ “शास्त्रकार हमारे जैसे ही मनुष्य थे। उन्होंने मनुष्यों के लिए ही मनुष्यों के व्यवहार और आचार निश्चित किए हैं। जो लोग परीक्षा करने में आलसी हैं, वे ही यह कह सकते हैं कि उनकी थाह नहीं पायी जा सकती, उनका पार नहीं पाया जा सकता। किन्तु परीक्षक व्यक्ति उन्हें अगाध मानकर कैसे स्वीकार करेगा? वह परीक्षापूर्वक ही उन्हें स्वीकार कर सकता है।" "एक शास्त्र असम्बद्ध और अस्त-व्यस्त रचा हुआ होता है, फिर भी वह पुरातन पुरुषों के द्वारा रचित है, यह कहकर उसकी प्रशंसा करते हैं। आज का बना हुआ शास्त्र सम्बद्ध और संगत है, फिर भी नवीन होने के कारण उसे नहीं पढ़ते । यह मात्र स्मृति का मोह है, परीक्षा का विवेक नहीं है।" ____ अल्पवया शिशु की बात युक्तिसंगत हो सकती है और पुराने पुरुषों की कही हुई बात दोषपूर्ण हो सकती है; इसलिए इमें परीक्षक बनना चाहिए। नवीनता की उपेक्षा और प्राचीनता का मोह हमारे लिए उचित नहीं है—यह विक्रम की पाँचवीं शती का चिन्तन आज के वैज्ञानिक युग में और अधिक मूल्यवान् बन गया है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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