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________________ २४६ जैन दर्शन और संस्कृति हैं। आचार्य हेमेन्द्र ने आचार्य सिद्धसेन के अभिमत को सहज भाषा में प्रस्तुत किया है—“जिस किसी समय में, जिस किसी रूप में और जिस किसी नाम से, आप प्रकट हों, यदि आप वीतराग हैं, तो आप मेरे लिए एक ही हैं। मैं वीतराग के प्रति प्रणत हूँ; देश, काल तथा नाम और रूप के प्रति प्रणत नहीं हूँ।" जैन धर्म यथार्थवादी है। पौराणिक काल में अपने इष्टदेव का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन करने की होड़-सी लगी थी। फलत: जितने भी महापुरुष हुए, उनका मानवीय रूप दैवी चमत्कारों से आवृत्त हो गया। यह स्थिति यथार्थवाद के अनुकूल नहीं थी। आचार्य समन्तभद्र ने इस पर तीव्र प्रहार किया। उन्होंने इन चमत्कारों को महानता का मानदण्ड मानने से अपनी असहमति प्रकट की। उन्होंने महावीर को चमत्कारों के आवरण से निकालकर यथार्थवाद के आलोक में देखने का प्रयल किया। उनका प्रसिद्ध श्लोक है देवागमनभोयान-चामरादिविभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् ॥ “भगवन् ! देवताओं का आना, आकाश-विहार, छत्र-चामर आदि विभूतियाँ ऐन्द्रजालिक व्यक्तियों के भी हो सकती हैं। आपके पास देवता आते थे। आप छत्र, चामर आदि अनेक यौगिक विभूतियों से सम्पन्न थे। आप इसलिए महान् नहीं। आप इसलिए महान् हैं कि आपने सत्य को अनावृत किया था।" आचार्य : हेमचन्द्र ने भी चिन्तन की इसी धारा को विकसित किया। उन्होंने कहा-"आपके चरण-कमल में इन्द्र लोटते थे”, इस बात का दूसरे दार्शनिक खण्डन कर सकते हैं या अपने इष्टदेव को भी इंद्रपूजित कह सकते हैं, किन्तु आपने जो यथार्थवाद का निरूपण किया, उसका वे निराकरण कैसे करेंगे। यथार्थवाद में सत्य का स्वीकार श्रद्धा से नहीं होता। न व्यक्ति के प्रति श्रद्धा और न सिद्धान्त के प्रति श्रद्धा। दोनों की परीक्षा की जाती है। आचार्य हरिभद्र ने इस सत्य को निरपेक्ष शब्दों में अभिव्यक्त किया है। वे कहते हैं—“महावीर के प्रति मेरा कोई पक्षपात नहीं है और कपिल आदि दार्शनिकों से मेरा कोई द्वेष नहीं है। मैं इस विचार का व्यक्ति हूँ कि जिसका विचार युक्तियुक्त हो, उनका अनुगमन करना चाहिए। आचार्य हेमचन्द्र ने इस वास्तविकता को बहुत ही स्पष्ट शब्दों में उजागर किया है। उन्होंने लिखा है—“भगवन् ! श्रद्धा से आपके प्रति हमारा पक्षपात नहीं है। अन्य दार्शनिकों के प्रति द्वेष के कारण हमारी अरुचि नहीं है। हमने आप्तत्व की परीक्षा की है। उस परीक्षा में आप खरे उतरते हैं; इसलिए हमने आपका अनुगमन किया है।"
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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