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चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग
२४५ और अतीन्द्रिय-ज्ञान को स्वीकार करते हैं। तर्क इन्द्रिय ज्ञान की परिधि में होता है। गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा- "भंते ! जैसे हम श्वास लेते हैं, वैसे ही क्या पृथ्वीकाय के जीव भी श्वास लेते हैं?” भगवान् ने इसका स्वीकारात्मक उत्तर दिया। इन्द्रिय के द्वारा यह गम्य नहीं है, इसलिए यह तर्क का विषय भी नहीं है। किन्तु महावीर ने क्या ऐसे तत्त्वों का प्रतिपादन नहीं किया, जो इंद्रियगम्य हैं और जिनकी व्याख्या तर्क के द्वारा की जा सकती है? आचार्य सिद्धसेन ने यह चिन्तन प्रस्तुत किया कि जो व्यक्ति अहेतुगम्य तत्त्वों का आगम-प्रामाण्य के द्वारा और हेतुगम्य तत्त्वों का तर्क-प्रामाण्य के द्वारा प्रतिपादन करता है, वह आगम के हृदय को यथार्थ समझता है और उनका यथार्थ प्रतिपादन करता है। जो व्यक्ति हेतुगम्य और अहेतुगम्य दोनों तत्त्वों को केवल आगमप्रामाण्य से समझने का प्रयल और प्रतिपादन करता है, उसने आगम के यथार्थ को नहीं समझा और उनके प्रतिपादन की यथार्थ पद्धति भी उसे प्राप्त नहीं है।
इस विचार का बीज-वपन नियुक्तिकार भद्रबाहु ने किया था। उनका युग तर्कशास्त्र के विकास का प्रारम्भिक युग था। इसलिए उन्होंने आगम और दृष्टान्त-इन दो शब्दों का प्रयोग किया था- आगमगम्य तत्त्व आगम के द्वारा और दृष्टान्तगम्य तत्त्व दृष्टान्त के द्वारा जानने चाहिए। आचार्य सिद्धसेन तर्कशास्त्र के विकासकर्ताओं में अग्रणी थे। इसलिए उन्होंने दृष्टान्त के स्थान पर हेतुवाद का प्रयोग किया है।
आचार्य सिद्धसेन ने स्वतंत्र चिंतन और हेतुवाद का जो मूल्यांकन किया, वह सबको मान्य नहीं हुआ। फलत: जैन परम्परा में दो धाराएं निर्मित हो गईं—सिद्धांतवादी और तर्कवादी।
सिद्धान्तवादी आगमिक प्रतिपादन को शब्दश: और अक्षरश: स्वीकार करते थे। तर्कवादी आगम के हेतुगम्य तत्त्वों की तार्किक समीक्षा भी करते थे और उनके साथ नया चिंतन भी जोड़ते थे। सिद्धान्तवादियों ने अपनी सारी शक्ति आगमिक वचनों के समर्थन में लगाई, जबकि तार्किक विद्वानों की शक्ति अपने समसामयिक दार्शनिकों के तर्कों को समझने और उनकी जैन-पद्धति से मीमांसा करने में लगी। उन्होंने दूसरे दर्शनों से कुछ लिया और उन्हें कुछ देने का प्रयत्न भी किया। यह समाचार की वृत्ति सत्य को अनेकांत दृष्टि से देखने पर ही प्राप्त हो सकती थी। आचार्य सिद्धसेन ने सत्य को व्यापक दृष्टि से देखा तभी उन्हें यह दिखाई दिया कि विश्व के किसी भी दर्शन में जो सुप्रतिपादित है, वह महावीर के वचन का ही बिन्दु है। वे महावीर को एक व्यक्ति के रूप में नहीं देखते हैं। उनके लिए महावीर एक आत्मा है। आत्मा ही परम सत्य है। जहाँ कहीं भी सत्य के कण दिखाई देते हैं, वे सब आत्मा की ज्योति के ही स्पुलिंग