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________________ चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग श्रद्धावाद-हेतुवाद . चिंतन की तुलना सरिता के उस प्रवाह से की जा सकती है जिसका उद्गम छोटा होता है और गतिशील होने के साथ-साथ वह विशालकाय होता चला जाता है। भारतीय मानस श्रद्धा-प्रधान रहा है। उसमें तर्कबीज की अपेक्षा श्रद्धा-बीज अधिक अंकुरित हुए हैं। इसीलिए यहाँ मौलिक चिंतक अपेक्षाकृत कम हुए हैं। धर्म के क्षेत्र में कुछ महान् साधक अवतार या तीर्थकर हुए हैं। वे हिमालय की भांति अत्यन्त महान् थे। उनकी महानता तक मौलिक चिंतक भी नहीं पहुंच पाते थे। फलत: उनके प्रति चिंतकों का श्रद्धावनत होना स्वाभाविक था। साधारण जन तो श्रद्धावनत था ही किंतु साधारण जन की श्रद्धा और चिंतक की श्रद्धा में एक अन्तर था। साधारण जन अपने श्रद्धेय की हर वाणी को श्रद्धा से स्वीकार करता था। चिंतक अपने श्रद्धेय की महान आध्यात्मिक उपलब्धि के प्रति श्रद्धावनत होने पर भी उनके प्रत्येक वचन को श्रद्धा से स्वीकार करने का आग्रह नहीं करता था। आचार्य सिद्धसेन (लगभग विक्रम की चतुर्थ शताब्दी) जैन परम्परा में मौलिक चिन्तक हुए हैं। उनकी ज्ञान-गरिमा अगाध थी। वे भगवान् महावीर के प्रति अत्यन्त श्रद्धा-प्रणत थे, किन्तु साथ-साथ अपने स्वतन्त्र चिन्तन का भी प्रयोग करते थे। उन्होंने अनेक तथ्यों पर अपना स्वतन्त्र मत व्यक्त किया। उस समय के श्रद्धावादी आचार्यों और मुनियो ने उनके सामने तर्क उपस्थित किया—'जो तथ्य आगम-ग्रन्थों में प्रतिपादित हैं, उनके प्रतिकूल किसी भी सिद्धान्त की स्थापना कैसे की जा सकती है?' आचार्य सिद्धसेन ने इस तर्क का सीधा खण्डन भी नहीं किया और उनके मत का समर्थन भी नहीं किया। उन्होंने स्याद्वाद की शैली से एक नया चिन्तन प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि महावीर ने दो प्रकार के तत्त्वों का प्रतिपादन किया है-हेतुगम्य, अहेतुगम्य। अहेतुगम्य तत्त्व चिंतन और तर्क की सीमा से परे होते हैं। उन्हें समझने के लिए तर्क का उपयोग नहीं हो सकता। वे श्रद्धा के विषय हैं। हम अतीन्द्रिय-तत्त्व
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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