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जैन दर्शन और संस्कृति ६. जन-भाषा का प्रयोग। ७. अहिंसा का व्यवहार में प्रयोग।
८. प्रामाणिकता—जैन गृहस्थ अहिंसा-पालन के साथ-साथ कर्तव्य के प्रति बहुत जागरूक थे। वे देश के विकास और रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर देते थे।
दक्षिण के जैन समाज ने जीविका (अन्नदान), शिक्षा (ज्ञानदान), चिकित्सा (औषधदान) और अहिंसा (अभयदान) के माध्यम से जैन-धर्म को जन-धर्म का रूप दे दिया था।
९. सशक्त और कुशल आचार्यों का नेतृत्व ।
विक्रम की नवीं-दसवीं शताब्दी में इन स्थितियों में परिवर्तन आने लगा। फलत: जैन-धर्म का विकास अवरुद्ध हो गया।
ह्रास के मुख्य हेतु ये हैं१. आंतरिक पवित्रता और शक्ति की कमी, बाह्य कर्मकांडों की प्रचुरता।
२. व्यक्तिवादी मनोवृत्ति-दूसरों की हानि से मुझे क्या? मैं दूसरों के लिए क्यों कर्म- बांधू? इस प्रकार के ऐकांतिक निवृत्तिवादी चिंतन ने परस्परता के बन्धन में शिथिलता ला दी।
दक्षिण भारत में जैन-धर्म के ह्रास के मुख्य तीन कारण हैं
१. जैन जागृति करने वाले प्रभावशाली आचार्यों के कार्यकाल में बहुत बड़ा व्यवधान।
२. ऐसे नेतृत्व का अभाव जो राजनीति और धर्मनीति को साथ-साथ लेकर चल सके।
३. अन्य धर्मों के बढ़ते हुए प्रयाव की उपेक्षा और अपने आपको एकांतत: आध्यात्मिक बनाए रखने की प्रवृत्ति ।
दक्षिण के मुख्य दो प्रांतों में हास के अन्यान्य कारण भी रहे हैं१. तमिलनाडु में ह्रास के कारण
१. शैव नयनार और वैश्णव आल्वारों का उदय।
२. उनके द्वारा जातिवाद का बहिष्कार कर अपने धर्म-संघ में नीची जाति वालों का प्रवेश।
३. राजधर्म को प्रभावित कर राजाओं को अपने मत के प्रति आकृष्ट करना। ४. जैन स्तुतियों का अनुकरण कर शैव स्तुतियों का निर्माण करना।