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________________ जैन धर्म का प्रसार २४१ स्टेशन से लगभग तीन मील की दूरी पर स्थित ‘गुणावा' को प्राचीन गुणशील माना जाता है। ७. ऋषभदेवजी राजस्थान के दक्षिणी अंचल में धुलेव नाम का कस्बा है। यह उदयपुर से ६४ किलोमीटर दूर उपत्यकाओं से घिरा हुआ है। यहाँ 'कोयल' नाम की नदी बहती है। यहीं ऋषभदेव का विशाल मन्दिर है। यह एक किलोमीटर के घेरे में स्थित पक्के पाषाण का मन्दिर है। माना जाता है कि पहले यहाँ ईटों का बना हुआ मन्दिर था। वह टूट गया। फिर १४वीं-१५वीं शताब्दी में यह पाषाणमय मन्दिर बना। इस मन्दिर के गर्भगृह में भगवान् ऋषभदेव की पद्मासन्न में स्थित श्यामवर्णीय भव्य प्रतिमा है। इसकी ऊंचाई साढ़े तीन फुट है। इस मूर्ति पर केसर अधिक चढ़ाई जाती है, इसलिए इसे 'केसरियाजी' या 'केसरियानाथजी' भी कहते हैं। यह प्रतिमा बहुत ही चमत्कारिक है। इसलिए जैन, अजैन, भील तथा अन्य जाति के लोग भी यहाँ हजारों की संख्या में आते हैं और मनौती मनाते हैं। भील लोग इस मूर्ति को 'कालाजी' कहकर पुकारते हैं और उनके मन में इसके प्रति इतनी श्रद्धा और विश्वास है कि 'कालाजी की आण' को वे सर्वोपरि मानते हैं। जैन-धर्म : विकास और ह्रास विश्व की प्रत्येक प्रवृत्ति को उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ा है। कोई भी प्रवृत्ति केवल उन्नति और अवनति के बिन्दु पर अवस्थित नहीं रहती। जैन धर्म के विकास के मुख्य हेतु हैं १. मध्यम मार्ग-जैन आचार्यों ने गृहस्थ के लिए अणुव्रतों का विधान कर उसकी सामाजिक अपेक्षाओं का द्वार बन्द नहीं किया। २. समन्वय-जैन धर्म के भिन्न-भिन्न विचारों का सापेक्ष दृष्टि से समन्वय होने के कारण वह विभिन्न विचारधारा के लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर सका। ३. समाहार-जैन धर्म में जातिवाद की तात्विकता मान्य नहीं थी, इसलिए सभी जाति के लोग उसे अपनाते रहे। ४. परिवर्तन की क्षमता-जैन आचार्यों ने सामाजिक परम्परा को शाश्वत का रूप नहीं दिया। इसलिए जैन समाज में देश और वाल के अनुसार परिवर्तन का अवकाश रहा। यह जनता के आकर्षण का सबल हेतु रहा। ५. सैद्धांतिक सहिष्णुता-दूसरे धर्मों में सिद्धान्तों को सहने की क्षमता के कारण जैन धर्म दूसरों की सहानुभूति अर्जित करता रहा।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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