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________________ दर्शन है सत्यं शिवं सुन्दरं की त्रिवेणी ११ लिए उपदेश और तर्क-पूर्ण मनन तथा निदिध्यासन (गहन ध्यान या चिंतन) की आवश्यकता बतलाई है। जहाँ तर्क का अतिरंजन होता है, वहाँ एकांतिकता (एकपक्षीय आग्रह) आ जाती है। उससे अभिनिवेश, आग्रह या मिथ्यात्व पनपता 1 आगम : तर्क की कसौटी पर यदि कोई एक ही दृष्टा ऋषि होता या सारे आगम एक ही प्रकार के होते तो आगमों को तर्क की कसौटी पर चढ़ने की घड़ी न आती किन्तु अनेक मतवाद हैं, अनेक ऋषि, किसकी बातें मानें, किसकी नहीं, यह प्रश्न लोगों के सामने आया । धार्मिक मतवादों के इस पारस्परिक संघर्ष से दर्शन का विकास हुआ । भगवान् महावीर के समय में ३६३ मतवादों का उल्लेख मिलता है । बाद में उनकी शाखा प्रशाखाओं का विस्तार होता गया । स्थिति ऐसी बनी कि आगम की साक्षी से अपने सिद्धान्तों की सचाई बनाये रखना कठिन हो गया । तब प्राय: सभी प्रमुख मतवादों ने अपने तत्त्वों को व्यवस्थित करने के लिये युक्ति का सहारा लिया । आगमों की सत्यता का भाग्य तर्क के हाथ में आ गया। चारों ओर 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः ' – यह उक्ति गूंजने लगी । वही धर्म सत्य माना जाने लगा जो कष, छेद और ताप सह सके । परीक्षा के सामने अमुक व्यक्ति की वाणी का आधार नहीं रहा, वहाँ व्यक्ति के आगे युक्ति की उपाधि लगानी पड़ी— "युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः " - " जिसका वचन युक्तियुक्त हो, उसे ही ग्रहण करना चाहिये ।' भगवान् महावीर, भगवान् बुद्ध या महर्षि व्यास की वाणी है, इसलिए सत्य है या इसलिए मानो, यह बात गौण हो गई । 'हमारा सिद्धांत युक्तियुक्त है, इसलिये सत्य है - इसका प्राधान्य हो गया । तर्क का दुरुपयोग ज्यों-ज्यों धार्मिकों में मत- विस्तार की भावना बढ़ती गई, त्यों-त्यों तर्क का क्षेत्र व्यापक बनता चला गया । न्यायसूत्रकार ने वाद, जल्प और वितण्डा को तत्त्व बताया । वाद को तो प्रायः सभी दर्शनों में स्थान मिला। जय-पराजय की व्यवस्था भी मान्य हुई, भले ही उसके उद्देश्य में कुछ अन्तर रहा हो । आचार्य और शिष्य के बीच होने वाली तत्त्वचर्चा के क्षेत्र में वाद फिर भी विशुद्ध रहा किन्तु दो विरोधी मतानुयायियों में चर्चा होती, वहाँ वाद अधर्मवाद से भी अधिक
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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