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________________ जैन दर्शन और संस्कृति अनुयायियों द्वारा उनका समर्थन किया जाता रहा। ऋषि अपनी स्वतंत्र वाणी में बोलते हैं-“मैं यों कहता हूँ।” दार्शनिक युग में यह बदल गया। दार्शनिक बोलता है—“इसलिए यह यों है।" आगम-युग श्रद्धा प्रधान था और दर्शन-युग 'परीक्षा-प्रधान। आगम-युग में परीक्षा की और दर्शन-युग में श्रद्धा की अत्यंत उपेक्षा नहीं हुई। हो भी नहीं सकती। इस बात की सूचना के लिए ही यहाँ श्रद्धा और परीक्षा के आगे 'प्रधान' शब्द का प्रयोग किया गया है। आगम में प्रमाण के लिए पर्याप्त स्थान सुरक्षित है इसलिए यह व्याप्ति बन सकती है कि आगम में दर्शन है और दर्शन में आगम। तात्पर्य की दृष्टि से देखें तो अल्पबुद्धि व्यक्ति के लिए आज भी आगम-युग है और विशदबुद्धि व्यक्ति के लिए पहले भी दर्शन-युग था किन्तु एकान्तत: यों मान लेना भी संगत नहीं होता। चाहे कितना ही अल्पबुद्धि व्यक्ति हो, कुछ-कुछ तो परीक्षा का भाव उसमें होगा ही। दूसरी ओर विशुद्ध-बुद्धि के लिए भी श्रद्धा आवश्यक होगी ही इसीलिए आचार्यों ने बताया है कि आगम और प्रमाण, दूसरे शब्दों में श्रद्धा और युक्ति—इन दोनों के समन्वय से ही दृष्टि में पूर्णता आती है, अन्यथा सत्य-दर्शन की दृष्टि अधूरी ही रहेगी। विश्व में दो प्रकार के पदार्थ हैं—इन्द्रिय-गम्य पदार्थ यानी इन्द्रियों के द्वारा जिन्हें जाना जा सकता है; अतीन्द्रिय गम्य पदार्थ-इन्द्रियों से परे किसी विशिष्ट ज्ञान से जिन्हें जाना जा सकता है। इन्द्रिय-गम्य पदार्थों को जानने के लिए युक्ति और अतीन्द्रिय-गम्य पदार्थों को जानने के लिए आगम-ये दोनों मिलकर हमारी सत्योन्मुख-दृष्टि को पूर्ण बनाते हैं। यहाँ हमें अतीन्द्रिय को अहेतुगम्य पदार्थ के अर्थ में लेना होगा, अन्यथा विषय की संगति नहीं होती, क्योंकि युक्ति के द्वारा भी बहुत सारे अतीन्द्रिय पदार्थ जाने जाते हैं। सिर्फ अहेतुगम्य पदार्थ ही ऐसे हैं, जहाँ कि युक्ति कोई काम नहीं करती। ज्ञेयत्व की अपेक्षा से पदार्थ दो भागों में विभवत होते हैं-हेतुगम्य और अहेतुगम्य। जीव का अस्तित्व हेतुगम्य है-स्वस्खेदन-प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से उसकी सिद्धि होती है। रूप को देखकर रस का अनुमान, सघन बादलों को देखकर वर्षा का अनुमान होता है, यह हेतुगम्य है। पृथ्वी कायिक जीव श्वास लेते हैं, यह अहेतु गम्य है। अभव्य जीव मोक्ष नहीं जाते किन्तु वयों नहीं जाते, इसका युक्ति में भी कहा जाता है--"स्वभावे तार्किका: भग्नाः"- स्वभाव के सामने कोई प्रश्न नहीं होता। अग्नि जलती है, आकाश नहीं--यह तर्क के लिए स्थान नहीं है। आगम और तर्क का जो पृथक्-पृथक् क्षेत्र बतलाया है, उसको मानकर चले बिना हमें सत्य का दर्शन नहीं हो सकता। वैदिक साहित्य ने भी सम्पूर्ण दृष्टि के
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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