________________
दर्शन है सत्यं शिवं सुन्दरं की त्रिवेणी
उसी को होता है जो निरावरण (ज्ञान का आवरण करने वाले कर्मों से मुक्त ) हो । निरावरण यानी यथार्थद्रष्टा । वीतराग- वाक्य यानी यथार्थ - वक्तृत्व । ये दो मूल अवधारणाएँ हमारी सत्यमूलक धारणा की समानान्तर रेखाएँ हैं । इन्हीं के आधार पर हमने आप्त के उपदेश को आगम - सिद्धांत माना है । फलितार्थ यह हुआ कि यथार्थज्ञाता एवं यथार्थवक्ता से हमें जो कुछ मिला, वही सत्य है।
स्वतंत्र विचारकों का ख्याल है कि दार्शनिक परम्परा के आधार पर भारत में अंधविश्वास जन्मा । प्रत्येक मनुष्य के पास बुद्धि है, तर्क है, अनुभव है, फिर वह क्यों ऐसा स्वीकार करे कि यह अमुक व्यक्ति या अमूक शास्त्र की वाणी है, इसलिए सत्य ही है । वह क्यों न अपनी ज्ञान-शक्ति का लाभ उठाए ?
महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा- “ किसी ग्रंथ को स्वतः प्रमाण मत मानना, अन्यथा बुद्धि और अनुभव की प्रामाणिकता समाप्त हो जाएगी।” इस उलझन को पार करने के लिए हमें दर्शन - विकास के इतिहास पर विहंगम दृष्टि डालनी होगी ।
दर्शन की उत्पत्ति
वैदिकों का दार्शनिक युग उपनिषद् काल से शुरू होता है । आधुनिक अन्वेषकों के मतानुसार लगभग चार हजार वर्ष पूर्व उपनिषदों का निर्माण होने लग गया था। लोकमान्य तिलक ने मैत्र्युपनिषद् का रचनाकाल ईसा से पूर्व १८८० से १६८० के बीच माना है ।
बौद्धों का दार्शनिक युग ईसा से पूर्व पांचवीं शताब्दी में शुरू होता है । जैनों के उपलब्ध दर्शन का युग भी यही है, यदि हम भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा को इससे न जोड़ें।
यहाँ हमने जिस दार्शनिक युग का उल्लेख किया है, उसका दर्शन की उत्पत्नि से सम्बन्ध है । वस्तुवृत्या वह निर्दिष्ट काल आगम-प्रणयनकाल है, किन्तु दर्शन की उत्पत्ति आगमों से हुई है, इस पर थोड़ा आगे चलकर कुछ विशद रूप में बताया जाएगा इसलिए प्रस्तुत विषय में उस युग को दर्शनिक युग की संज्ञा दी गई है।
:
=
दार्शनिक ग्रंथों की रचना तथा पुष्ट प्रामाणिक परम्पराओं के अनुसार तो वैदिक, जैन और बौद्ध प्रायः सभी का दर्शन-युग लगभग विक्रम की पहली शताब्दी या उससे एक शती पूर्व प्रारम्भ होता है। उससे पहले का युग आगम-युग ठहरता है । उसमें ऋषि उपदेश देते गए और उनके वे उपदेश 'आगम' बनते गये। अपने मत के प्रवर्तक ऋषि को सत्य- दृष्टा कहकर उनके