________________
१२ .
जैन दर्शन और संस्कृति विकृत बन जाता। मण्डनमिश्र और शंकराचार्य के बीच हुए वाद का वर्णन इसका ज्वलंत प्रमाण है। आचार्य सिद्धसेन 'दिवाकर' ने महान् तार्किक होते हुए भी शुष्क वाद के विषय में विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि “श्रेयस् और वाद की दिशाएँ भिन्न हैं।"
भारत में पारस्परिक विरोध बढ़ने में शुष्क तर्कवाद का प्रमुख हाथ है
"तोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः, नैको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम्।"
–अर्थात् “तर्क पुष्ट आधार वाला नहीं है और श्रुतियाँ (वेद आदि ग्रंथ) भिन्न-भिन्न (प्रतिपादन कर रहे) हैं। ऐसा एक भी मुनि (ज्ञानी) नहीं है जिसका वचन प्रमाण माना जाए।”—युधिष्ठिर के ये उद्गार तर्क की अस्थिरता और मतवादों की बहुलता से उत्पन्न हुई जटिलता के सूचक हैं। मध्यस्थवृत्ति वाले आचार्य जहाँ तर्क की उपयोगिता मानते थे, वहाँ शुष्क तर्कवाद के विरोधी भी थे।
प्रस्तुत विषय का उपसंहार करने से पूर्व हमें उन पर दृष्टि डालनी होगी जो सत्य के दो रूप हमें इस विवरण में मिलते हैं
१. आगम को प्रमाण मानने वालों के मतानुसार जो सर्वज्ञ ने कहा है वह तथा जो सर्वज्ञ कथित और युक्ति द्वारा समर्थित है वही सत्य है।
२. आगम को प्रमाण न मानने वालों के मतानुसार जो तर्कसिद्ध है, वही सत्य है।
किन्तु सूक्ष्म, व्यवहित, अतीन्द्रिय तथा स्वभाव-सिद्ध पदार्थों की जानकारी के लिए युक्ति कहाँ तक कार्य कर सकती है, यह श्रद्धा को सर्वथा अस्वीकार करने वालों के लिए चिंतनीय है। हम तर्क की एकांतिकता को दूर कर दें तो वह सत्य-संधानात्मक प्रवृत्ति के लिए दिव्य-चक्षु है। धर्म-दर्शन आत्म-शुद्धि और तत्त्व-व्यवस्था के लिए है, आत्मवंचना या दूसरों को जाल में फंसाने के लिए नहीं; इसलिए दर्शन के क्षेत्र में सत्य का अन्वेषण होना चाहिए। भगवान् महावीर के शब्दों में “सत्य ही लोक में सारभूत है।"
उपनिषद्कार के शब्दों में “सत्य ही ब्रह्मविद्या का अधिष्ठदान और परम लक्ष्य है।"
“आत्म-हितेच्छु पुरुष असत्य, चाहे वह कहीं हो, को छोड़, सत्य को ग्रहण करे।"-कवि भोज यति की यह माध्यस्थ्यपूर्ण उवित्त प्रत्येक तार्किक के लिए माननीय है। दर्शन का मूल
तार्किक विचार-पद्धति, तत्त्वज्ञान, विचारप्रयोजक ज्ञान अथवा परीक्षा विधि का नाम दर्शन है। उसका मूल उद्गम कोई एक वस्तु या सिद्धान्त होता है। जिस