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जैन धर्म का प्रसार
२३३ विशेषकर मथुरा जनपद में जैन-धर्म उन्नत और प्रभावशाली रहा। तीसरी शताब्दी के लगभग जब कुषाणों की पराजय हुई, तब जैन-धर्म का प्रभाव भी घट गया, किन्तु आगन्तुक भद्रक, अर्जुनायन आदि युद्धोपजीवी गणराज्य जैनों के प्रति सहिष्णु बने रहे। जैन मुनियों के विहरण में कोई बाधा नहीं आई।
गुप्तकाल का प्रारम्भ लगभग ई. ३२० माना जाता है। गुप्त-नरेश यद्यपि जैन नहीं थे, फिर भी वे जैन-धर्म के प्रति-सहिष्णु थे। उनका वर्चस्व छठी शताब्दी के मध्य तक रहा।
कन्नौज का प्रतापी सम्राट हर्षवर्धन (ई. ६०६-६४७) का विशेष झुकाव जैन-धर्म की ओर नहीं था. फिर भी वह जैन विद्वानों का समर्थक और प्रतिष्ठापक था।
राजस्थान
भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् मरुस्थल (वर्तमान राजस्थान) में जैन-धर्म का प्रभाव बढ़ गया था।
आचार्य रत्नप्रभसूरि वीर-निर्वाण की पहली शताब्दी में उपकेश या ओसियां में आए थे। उन्होंने वहाँ ओसियां के सवा लाख नागरिकों को जैन-धर्म में दीक्षित किया और उन्हें एक जैन-जाति (ओसवाल) के रूप में परिवर्तित कर दिया। यह घटना वीर-निर्वाण के ७० वर्ष बाद की है। अजमेर के निकट बडली (ग्राम) में वीर-निर्वाण संवत् ८४ का एक शिलालेख उपलब्ध हुआ है, उससे भी यहाँ जैन धर्म के व्यापक प्रसार का पता लगता है। पंजाब (हरियाणा) और सिन्धु-सौवीर
भगवान् महावीर ने साधुओं के विहार के लिए चारों दिशाओं की सीमा निर्धारित की, उसमे पश्चिमी सीमा ‘स्थूणा' (कुरुक्षेत्र) है। इससे जान पड़ता है कि पंजाब का स्थूणा तक का भाग जैन-धर्म से प्रभावित था। साढ़े पच्चीस आर्य-देशों की सूची में भी कुरु का नाम है।
सिधु-सौवीर दीर्घकाल से श्रमण-संस्कृति से प्रभावित था। भगवान् महावीर महाराज उदायण को दीक्षित करने वहाँ पधारे थे। मध्य-प्रदेश
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के लगभग बुन्देलखण्ड में जैन-धर्म बहुत प्रभावशाली था। आज भी वहाँ उनके अनेक चिह्न मिलते हैं।